कहानी:-
’’ पथरीली राह ’’
जवानी जब आती है तो अपने साथ ढेर सारी सौंगातें
लाती है। जिन्हें पा लेने के बाद आदमी अपने आप मे कुछ अजीब-अजीब सा महसूस करने
लगता है। एक अजीब सा उत्साह, एक अजीब सी मस्ती, एक अजीब सा निखार उसे अपने चारों ओर बिखरी- बिखरी सी नजर आने लगती है,और, वह कल्पनाओं के
रंगीन पंखो पर बैठकर दूर - बहुत दूर तक उड
जाना चाहता है। वहां जहां आसमानी सितारें हैं और उन सितारों के पीछे भी एक संसार
हैं, जिसे लोग ’’
प्यार का संसार ’’
कहते हैं।
’’ जी हां प्यार का
संसार ’’!
परन्तु प्यार के मुलतः तीन दायरे होते हैं,
और इन दायरों तक
सीमित प्यार ही सच्चा प्यार होता है। ये दायरे हैं - आकर्षण,
अपनापन और आलींगन।
इन सीमित दायरों के बाहर का प्यार ,
प्यार न रहकर वासना मे परिवर्तित हो जाता है। सर्व प्रथम
इसमें भटके इंसान को सब प्यारा- प्यारा सा, अच्छा-अच्छा सा , भला - भला सा लगता है। उमंगो की इस फूलों भरी धरती पर पहुंचते ही उस पर कुछ इस
तरह की मदहोशी छा जाती है, कि उसके कदम लडखडा जाते हैं। लडखडा गयी जिन्दगी सहारा पाने को बैचेन हो जाती
है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे बिना सहारे
के अगला सफर तय नहीं किया जा सकेगा। तब नशीली आंखों मे खोज का भाव आ जाता है। उसे
अपने लिये एक समव्यस्क की तलाश होती है, जो जिन्दगी केे आखरी मुकाम तक उसका साथ दे सके। साथी भी मिल ही जाता है और
साथी के मिलते ही दोनो एक दूसरे के प्रति आकर्षित हो जाते हैं। इस आकर्षण के
पश्चात दोनो का खिंचवा एक ही ओर हो जाता है। एक ही ओर के खींचाव से दोनों के अन्दर
अपनापन की भावना जागृत होती है। उस वक्त दोनों के अन्दर किसी प्रकार का संदेह,
कोई डर नहीं रह जाता है। दोनो के इस अपनत्व के कारण ही उनका
प्यार गहरा और अटूट हो जाता है। फिर दो दिल धडकते हैं,
प्यार की जल तरंगें उनकी आत्माओं मे बजती है,
और वे समा जाते हैं एक दूसरे की बाहों मे। आलींगन बद्ध हो
जाते है। तब वे सब कुछ भूल जाते हैं। उन्हे दीन- दुनियां की परवाह नहीं रहती।
जमाने का डर उनके दिल- ओ - दिमाग से निकल जाता है। वे वक्त की चाल को भूल जाते है।
उन्हे याद रहता है सिर्फ ओर सिर्फ अपना प्यार। जिनके सहारे वे उम्र के लम्बे सफर
को तय करना चाहते है।
स्वपिल नेत्रों वाली वह रूप राशि की प्रतिमा ,इतनी गोरी और गुलाबी थी कि छुये से ही मैली हो जाये। हर नख-शिख बोलता सा लगता
था।
सीप सी बडी - बडी आंखों के बीच सुतवां नाक।
अण्डे से लम्बोतर चेहरे पर संतरे के फांक की मानिंद होठ। सुराहीदार गर्दन के नीचे
पुष्ट और आकर्षक वक्ष। पतली कमर, उभरे हुए पुष्ट नितम्ब और सुडौल जंघाये , कुल मिलाकर वह संगतराश की तराशी हुई कोई अद्भूत व अलौलिक प्रतिमा लगती थी।
उसका नाम नीशी था। वह एक गरीब परिवार की अठारह वर्षीया लडकी थी। वह अपने भाई-
बहनों में सबसे बडी थी। उसके पीठ पर दो भाई थे। जो क्रमशः आठ और चार वर्ष के थे।
पिता की मृत्यु हो चुकी थी और, मां ही इन भाई - बहनों का भरण पोषण किया करती थी। पिता के मृत्यु पश्चात निशी
तथा उनके दोनों भाईयों की पढाई का जिम्मा ,वो मालिक ले रखा था। जिनके घर निशी की मां काम किया करती थी।
निशी पढने मे बहुत तेज थी। अपने वर्ग मे अक्सर
वो अव्वल दर्जे से उर्तीण होती। मैट्रीक भी उसने प्रथम श्रेणी से उतीर्ण किया और
उसका नामांकन काॅलेज मे करा दिया गया ।
निशी का काॅलेज का पहला दिन। वह कुछ सहमी सहमी
सी अपने अन्दर अजीब सा भय समाये क्लास मे बैठी थी। लेक्चरर द्वारा दी जा रही
लेक्चर को अपनी काॅपी पर सुनहरे अक्षरों मे अंकित कर रही थी। कुछ छणोपरांत घंटी
बजी और क्लास ओभर हो गया। वह सीढियों से नीचे उतर रही थी। जिगर मे समाये डर के
कारण वह बहुत तेज-तेज कदम बढा रही थी। आचानक सीढी के मोड पर उसे टक्कर लगी और
हाथों के सहारे उसके वक्ष स्थल से चिपकी सारी पुस्तकें नीचे फर्श पर बिखर गयी। वह
जल्दी जल्दी उन पुस्तकों को बीन कर पुनः वक्ष स्थल से स्पर्श कराते हाथों का सहारा
दे खडी हुई। तो पाया उसके सामने एक हृष्ट पुष्ट नौजवान खडा था। उसकी उम्र कोई
पच्चीस वर्ष के आसपास की होगी। वह बीए के अंतिम वर्ष का छात्र और एक समृद्ध परिवार
का लडका था। उसका नाम था अमित। आचानक उसे सामने देख निशी सकपका गयी। सकपकाया तो
अमित भी , लेकिन निशी के
चेहरे पर नजर पडते ही वह उस आलौकिक प्रतिमा को अपलक देखता रह गया। उसने अपने पांच
वर्षीय काॅलेज जिन्दगी के दरम्यान ऐसी सुन्दर लडकी नहीं देखी थी। अतः वह चाह कर भी
अपनी निगाहें निशी के चेहरे से नही हंटा पाया।
अमित को इस कदर आंखे फाड -फाड कर अपनी ओर देखता
पा निशी और भी भयभीत हो गयी और तेज-तेज कदमों से सीढियां उतर पुरी शक्ति से भागती-
भागती काॅलेज गेट से बाहर निकली। अमित भी उसका अनुकरण करता अपने स्कूटर पर सवार हो
काॅलेज गेट से बाहर निकला और निशी के पीछे हो लिया। भय से कांपती निशी भागी जाती
और मुड-मुड कर भी देखती जाती। अमित को पीछा करता देख उसको लगा जैसे उसके जिस्म मे
खुने का एक कतरा भी शेष न बचा हो। पूरी शक्ति से भागती- भागती वो एक चैराहे पर
पहुंच पीछे पलटी। अमित को दूसरी दिशा मे जाते देख उसकी सांस मे सांस आयी। अब वह धीरे - धीरे चलती अपने घर कोे जाने लगी।
चैराहे से कुछ ही दूरी पर उसका घर था। घर पहूंची तो जैसे उसे सुकुन मिला हो,
उसने एक गहरी सांस ली। अपितू अभी भी उसका चेहरा भय से लिप्त
था। बार- बार अमित की बडी- बडी आंखें उसे घुरतीे नजर आ जाती।
शनैः शनैः दिन बीते,
सप्ताह बीते। अमित नित्य काॅलेज से चैराहे तक और चैराहे से
काॅलेज तक निशी के पीछे- पीछे जाता- आता। पर अब निशी को अमित के इस भाव-भंगीमे से
भय नहीं लगता। उसके जेहन से भय अब हमेशा-हमेशा के लिये विलुप्त हो चुका था। अब उसे
अपने भीतर अजीब -अजीब सी सरगोशी महसूस
होने लगी। एक अजीब सा उत्साह, अजीब सी मस्ती उसे अपने चारों ओर फैली नजर आने लगी। अब वह कल्पनाओं के सतरंगी
पंखों पर सवार हो दूर- बहुत दूर तक उड गयी। उडती हुई निशी वहां पहुंची जहां आसमानी
सितारे थे। और, जिसके पीछे भी एक संसार था। अब निशी का झुकाव अमित के प्रति होने लगा। जिस दिन
वह अमित को नहीं देखती उसके अन्दर अजीब सी बैचेनी छा जाती।
उधर अमित का भी येही हाल था। वह भी निशी को
बहुत चाहने लगा था और उससे गहरा प्यार भी करने लगा था। अनकहे,
अनजाने मे ही दोनो प्यार के फूलों भरी धरती पर पहुचे तो उन्हें
सब कुछ भला-भला सा, प्यारा-प्यारा सा लगने लगा। उल्फत का नशा दोनो पर इस कदर छायी कि दोनो की कदमे
लडखडाती महसूस होने लगी। उन्हें लगा अब अगामी सफर बगैर सहारे के नामुमकिन। एक ही
ओर खिंचाव होने से दोनों मे अपनत्व की भावना समायी और उनको एक दूसरे से अटूट प्यार
हो गया। तब दो दिल धडके। प्यार की जल तरंगें उनकी आत्माओं मे बज उठी और वे समा गये
एक दूसरे की बाहों मे। वे दीन- दुरिया से बेखबर हो वक्त की चाल को भूल गये। जमाने
का डर उनके दिमाग से कोसों दूर चली गयी। बस! उन्हें याद रहा केवल अपना प्यार।
जिसके सहारे वे आगे की सफर तय करने को इच्छुक थे। वे अपने प्यार को जात पात की
सीमा मे नहीं बांधना चाहते । अब उन्हें यह महसूस होने लगा कि वे अब एक दूसरे के
बिना नहीं रह सकेंगे।
धीरे- धीरे दिन बीते,
सप्ताह बीते, यहां तक की महीनों भी बीत गये। और, उनका प्यार और अपनत्व गहराता चला गया। अब उनके सब्र का बांध टूटता महसूस
हुआ। इसीलिये दोनो अब एक ही डोर मे बंध
जाना चाहते थे, ताकि अगला सफर हंसते-हंसते प्यार के सहारे तय कर सकें। दोनो ने ही शादी करने
की सांेची।
तभी इनके प्यार की खबर निशी की मां और अमित के
पिता को लग गयी। अमित के पिता जो एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे,
उन्हें यह रिश्ता नागवार लगा।
यर्थाथ के कंकरीले रास्ते मे प्यार को ठोकर
लगी। समाज और जात-पात उनके बीच दीवार बन कर खडा हो गया। वक्त की ऐसी चोट पडी कि
प्यार की आत्मा लहू-लूहान हो गयी। उनकी जिन्दगी की मुस्कराहटें दूर बहुत दूर चली
गयी। ऐसा प्रतीत हुआ कि उनका प्यार रूपी महल रेत की भीत पर खडा था,
जो आंधी के थपेडों को बर्दास्त न कर सका और विध्वस्त हो गया
और आंखों से समुद्र की लहरों सा जल प्लावन शुरू हो गया।
धीरे- धीरे दोनो प्रमी की जिन्दगी विरानों मे
बीतने लगी। एक बार दो दिल पुनः मिलन की कोशिश भी किया पर समाज रूपी दीवार उन्हें
मंजिल तक पहुंचने मे अवरोधक बनकर खडा रहा।
इस प्यार की चर्चा से निशी के परिवार वालों को
अनेक यातनाएं सहने पडी। बहुत कष्ट उठाने पडे। निशी की मां सरस्वती देवी जो अमित के
ही घर काम करती थी, अमित के पिता श्याम बाबू ने उन्हें नौकरी से हंटा दिया। निशी का परिवार दर- दर
की ठोकरें खाने लगी। निशी तथा उसके भाईयों की पढाई भी बंद हो गयी। उन्हें पढाई से
वंचित होने के साथ-साथ समाज के ताने उलाहने भी सुनने पडे। सिर्फ इस प्यार के
खातिर।
इस जुदाई के कुछ महीनों बाद निशी ने खाट पकड
ली। अपने परिवार की दशा को देख-देख वो दिन- रात अपने आपको कोंसती रहती। अपने
भाईयों को भूख से बिलखते देख उसे सांत्वना देती पर अनायास ही उसकी आंखों से बाढ सी
उमड कर अश्क छलक जाती। वो लाख इन किमती मोतियों को बीनना चाहती पर नाकामयाब रहती।
एक दिन कुछ ऐसी ही परिस्थिति उत्पन्न हो गयी,
परिणामस्वरूप निशी की आंखों से समुद्र की लहरें बाढ सी उमड
पडी। जिसे रोक पाने मे निशी असमर्थ रही। वह रोती कलपती अमित की यादों मे खो गयी।
पता नही कब उसे निन्द्रा ने अपनी आगोश मे भर लिया। निन्द्रा के आंचल मे लिपटी वो
ख्वाबों की दुनियां मे सैर करने लगी। उसने देखा -उसकी शादी हो रही है। वह दुल्हन
के जोडों मे लिपटी दुल्हन सी सजी है। सहनाई बज रही है। चारों ओर चहल- पहल और
खुशियों का आम्बार है। अमित सेहरा बांधें
घोडी पर सवार हो उसके घर आया। उसकी शादी हुई। फिर डोली में बैठ वो ससुराल पहुंची।
ज्यों ही उसने सुहागरात कक्ष मे प्रवेश किया त्योंहि दो धुंधली आकृतियां उस पर झपट
पडी और उसके गले मे पडा मंगलसूत्र छीन लिया। निशी पूरे जोश मे चीखी। इसकी आवाज सुन
सरस्वती देवी तथा दोनो छोटे भाई निशी के खाट के समीप पहुंचे। देखा कि निशी का सारा
बदन थर्र- थर्र कांप रहा था। फिर यकायक उसकी थर्र-थर्राहट शांत हो गयी। धीरे-धीरे
रात्रि अस्ताचल के ओट मे जा छिपी और सुर्योदय हो गया। लेकिन निशी की जिन्दगी का
सूर्य तो रात्रि के साथ ही हमेशा- हमेशा के लिये अस्ताचल की ओट मे जा छिपा था,
अस्त हो गया था।
आज अमित की शादी है। श्याम बाबू उसकी शादी एक
सुसम्पन्न व समृद्ध परिवार के इंजिनियर की बेटी श्यामा के साथ तय की है। श्यामा
डाॅक्टरी पढ रही है। इन दिनों अमित ने भी एक अच्छी सी नौकरी पकड ली है। आज इधर
अमित के घर खुशी की सहनाई बज रही है , और उधर निशी के घर मातम छाया है। इधर अमित की बारात की तैयारी हो रही है तो
उधर निशी के अर्थी की। इधर अमित को सेहरा बांध लोगो ने घोडी पर बिठाया,
उधर कुछ लोगों ने निशी को अर्थी पर लिटाया। इधर अमित की
बारात निकली श्यामा के घर जाने को, उधर निशी की अर्थी को लोगों ने उठाया श्मशान ले जाने को। एक तरफ से बारात आ
रही है , दूसरे तरफ से
अर्थी जा रही है। दोनो प्रेमी एक बार पुनः चैराहे पर मिले। अमित को जब हकीकत पता
चली तो वह घोडी से उतरना चाहा पर अपने पिता की लाल- लाल आंखें देख वह सहम गया। फिर
हमेशा की भांति आज भी दोनो प्रेमी विपरीत दिशा मे चले और एक दूसरे से दूर होते चले
गये, और,
हमेशा- हमेशा के लिये जुदा हो गये।
:- समाप्त:-
संम्पर्क सूत्रः- राजेश कुमार,
पत्रकार, राजेन्द्र नगर, बरवाडीह, गिरिडीह 815301
झारखंड।
मो- 9308097830 /9431366404
ई-मेल:- parakarrajesh@gmail.com
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