मंगलवार, 24 मार्च 2015

अरमानों का चिराग



   अरमानों का चिराग

मैं अजब बाती था,
एक चिराग का
जलना चाहता था,
पर मजबूर था।
चिराग दूर थी बाती से,
सूख सा गया था बाती,
रीत की बंधन,
जमाने की जलन,
व्याप्त थी, साथ में-
समाज की कुढन।
इन बंधनों को ,
क्या तोड पाता मैं ?
इच्छा तेज थी -
अवश्य जल जाता मैं।
पर विवश था सोंचकर, 
क्या चिराग साथ दे पायेगी ?
या, वक्त से पूर्व ही -
साथ छोड जायेगी।
वक्त ने हकीकत बतला ही दी,
चिराग ने दूसरी बाती थाम ही ली,
वादाओं से विमुख हो,
वफाओं का साथ छोड
जा पहुंची है दूर,
कर मेरी अरमानों को -
चकानाचूर।

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