परिस्थितियां
होली के त्योहार मे,
रंग और गुलाल के बढते
दामों को देखकर
भर लिया हमने पिचकारी में
रंग नहीं खून।
त्योहारों पर आजकल
मिलते हैं गले, लोग
इंसानों के नहीं हथियारों
के।
रंग इतने खेले जाते हैं
कश्मीर और पंजाब में
औरतों के साथ -कि
मांगे सुनी और दुपट्टे
सफेद हो जाते है।
टूट कर बिखर जाती है,
चूडियां,
नोंक -झोंक मे नहीं,
देवर भाभी के-
अत्याचार से, उग्रवादियों के।
कितनी ही स्त्रीयां,
हर रात टटोलती है
अपने विस्तर।
पर सिवाय तकीये के,
नहीं मिलता कुछ।
गिले हो जाते हैं ,
गिलाफ!
बंध जाती है, हिचकियां
बंद कर देती है लाल
दुपट्टे और चुडियां- पिटार में।
खेलते हैं बच्चे, डिबियों से सिन्दूर के।
फिर भूली नहीं दिनचर्या,
देखती है राह,
लौटता पर कोई नहीं।
पावों मे ढोल की थाप
गुदगुदी करती हैं,
भांगडे नाचती है, अतीत के ख्यालों में।
उठाती है आज भी दुपट्टा
अपने चेहरे से-
पति के लिये नहीं,
मजदूरी करने के लिये।
सुनती है रोज कानों में,
प्यार के मीठे बोल नहीं-
अडोसी -पडोसी के ताने
-उलाहनें।
बंधती है आज भी , बाहूपाश में
प्रियतम के नहीं ,
परिस्थियों के।
देखती है रोज, कनखियों से-
भूत को भूल ,बर्तमान को नहीं, भविष्य को।
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