कलियुग नहीं यह अंधायुग
एक रथ के दो पहिये
जब टूट जाते हैं
पहिये चलते हो भले
पर रथ नहीं चलते।
एकता शक्ति है-
और फूट है बिखराव
जो लाख कोशिशों के बाद भी
नहीं बन सकता
ब्रह्मास्त्र।
एक मुट्ठी रेत से-
घरोंदे बन सकते हैं
नहीं बन सकता महल।
एक टिमटिमाती जुगनूं,
अमावश की रात में
आकर कहा, मैं सूरज हूं।
सबों ने मान लिया,
कुछ करने को ठान लिया
तभी आचानक हो गयी प्रकाश।
तमस मिट गया, तब देखा सबो ने-
अपने- अपने विकृत चेहरे।
अंधेपन में अंधेरा,
जो आनन्द बना था
वही प्रकाश मे, बन गया संताप।
कलियुग नहीं इस अंधे युग
में-
सभी हो गये थे अंधे।
चेतना लुप्त थी, विवेक मारा गया था।
मन का काला कृष्ण उलझा था
कुटनीति में।
कट मर रहे थे अन्दर का
अपनत्व
और प्रभू-
देख रहे थे स्वपन,
स्वार्थ की निन्द्रा में।
गद्दार युयुत्सु -
द्वापर में ही नहीं ,
कलयुग में भी है
जो सब कुछ छोड सकता है,
अपने स्वार्थ के लिये।
जो सब कुछ छोड सकता है,
अपने स्वार्थ के लिये।।
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