’’ प्रायश्चित ’’
नंगे हो गये है पहाड
हो गयी है धरती नंगी।
सुख रही है जल-धारा,
हो गये है प्यासे पशु
पक्षी।
आ रही है कहीं बाढ
पर रहा है कहीं सुखा
जंगलो की किल्लत से-
वातावरण हो गया है रूखा
-रूखा।
लकडी की किल्लत से अब
झोपडी भी न बन पाते।
लकडी की दिक्कत से अब
मुर्दे भी न जल पाते।
जंगल खत्म हो रहे
हैं जानवर भूखे भटक रहे
पर्यावरण दुषित हो गया
है संक्रामक रोग फैल रहे।
पर यह सब क्यों ?
बात साफ है।
हमने अपनी जनसंख्या
अंधाधुंध बढाई
जंगलो की की -
निरंतर कटाई।
पुरखों की पूंजी
बच्चों की भविष्य निधि
सभी है गंवाई।
किया जो हमने महापाप
अब क्यों न करें हम
पश्चाताप।
पाप किया है तो-
प्रायश्चित भी करना होगा
हमें एक जुट हो यह ...
संकल्प लेना होगा।
हम वृक्ष बचायेंगे।
हम वृक्ष लगायेंगे।
प्रयावरण प्रदुर्षण को-
हम दूर भगायेंगे।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें