मंगलवार, 24 मार्च 2015

मैं कौन हूं



 मैं कौन हूं

मै कौन हूं ?
क्या हूं ? किसलिये हूं ?
कहां से आया हूं ? क्यों आया हूं ?
मेरे मन की तन्हाई मे
एक ऐसा वक्त आता है
जब मैं सोंचने लगता हूं।
उस वक्त मेरे मन में
ये सवाल गूंजने लगती है।
मैं कौन हूं,
क्या हूं, कहां से आया हूं, क्यों आया हूं।
किसने भेजा है, क्यों भेजा है।
फिर मैं परेशान हो जाता हूं
कोई आकर इतना तो बता दे
मैरे इन जज्बाती सवालों का
जबाब क्या है।
मैं कौन हूं ? किसलिये हूं ?
पर कोई नहीं । कोई भी नहीं ।।
जे जबाब दे सके।
तब -मेरे मन के भीतर
एक विचार उठता है
क्या ? क्या मैं चुना गया हूं।
क्या करने को चुना है खुदा ने
अपने अरमानों की पूर्ति के लिये
या, या फिर किसी और के लिये।
सोंचता हूं, पर कह नहीं सकता।
यह सोंचना आखिर-
कब समाप्त होगा।
मैं इंतजार मे हूं - उस वक्त का
जब कोई आकर कहेगा।
’’ तुम जल का एक बूंद हो
खुदा के समुद्र का
हमेशा मुस्कुराते रहो
तरंगो जैसा
तृष्णा तृप्ति करों
वाणी की मधुरता से
जीवन दात देते
हमेशा बढेते रहो
आगे की ओर....। ’’
पर कोई कहने वाला हो तब तो।
बस! अब और सहा नहीं जाता
कोई आकर बता दे
नहीं तो मैं दर दर भटकता
यही पूछता रहूंगा।
मैं कौन हूं ? क्या हूं ?
काश! कोई ये तो बता दे
मैं कौन हूं ?
पर बेकार - सिर्फ निरर्थकता ही हाथ आती है।
और, तब मैं यह सोंचने पर विवश हो जाता हूं- कि
मैं   ’’ मैं  ’’ हूं
’’ मैं ’’ यानि ’’ अहम् ’’
अहम् यानि घमण्ड
पर मुझमे घमण्ड नहीं, क्योंकि -
मैं हूं कौन , मुझे पता नही तो घमण्ड कैसा।
अंत मे, मैं यह मान लेता हूं
मैं हूं -
एक पुतला - हाड मांसं का।
शायद वहीं हू।
हां मै वही हूं।
हां ! हां ! मै वही हूं।।

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