पितृपक्ष में पूर्वजों को पिंडदान और तर्पण, कब और कैसे करें ?
- 24 सितंबर से 8 अक्टूबर तक चलेगा पितृपक्ष मेला
- महालय अमावस्या के साथ समाप्त हो जाएगा पितृपक्ष
- जिन्हें पूर्वजों की तिथि की नहीं होती है जानकारी वो महालय को करते हैं दान
- पितृ पक्ष में पूर्वजों का तर्पण या पिंडदान कराना अनिवार्य है
- जो नहीं कराते तर्पण या पिंडदान उन्हें पितृदोष लगता है
- पितृपक्ष में कर्मकांड का विधि व विधान अलग-अलग है
- श्रद्धालु 1, 3, 7, 15 दिन और 17 दिन का करते हैं कर्मकांड
पितृपक्ष की शुरुआत हो गई। देश-दुनिया से लोग यहां पिंडदान और तर्पण के लिए लोग आने लगे हैं। इस वर्ष 24 सितंबर से पितृपक्ष मेला की शुरुआत हो चुकी है, जो 8 अक्टूबर तक चलेगी। इस खास मौके पर अपने पूर्वजों के आत्मा की शांति के लिए लोग पिंडदान और तर्पण के लिए यहां आते हैं और पिंडदान करते हैं। कहा जाता है कि सर्वपितृ अमावस्या यानी महालय अमावस्या के साथ खत्म हो जाएगा। महालय अमावस्या के दिन खासतौर से वह लोग जो अपने मृत पूर्वजों की तिथि नहीं जानते, वह इस दिन तर्पण कराते हैं। भाद्रपद के कृष्णपक्ष के 15 दिन पितृपक्ष कहलाता है। पितृ ऋण से मुक्ति पाने का यह श्रेष्ठ समय माना जाता है। शास्त्रों की मानें तो इस अवसर पर अपने पूर्वजों के लिए किए जाने वाले पिंडदान सीधे उनके पूर्वजों तक स्वर्गलोक तक लेकर जाता है।
अपने मृत पूर्वजों का श्राद्ध करने का सबसे उत्तम समय अमावस्या या पितृपक्ष माना जाता है। पिंड शब्द का मूल अर्थ किसी वस्तु का गोलाकार रूप होता है। प्रतिकात्मक रूप में शरीर को भी पिंड ही माना जाता है। पिंडदान के लिए पके हुए चावल, दूध और तिल को मिलाकर एक पिंड को तैयार किया जाता है। वही पिंड अपने पूर्वजों अर्पित कर दिया जाता है। ऐसी मान्यता है कि पितृपक्ष के दौरान मृत व्यक्ति अपने पुत्र और पौत्र से पिंडदान की उम्मीद रखते हैं।
जब तक हम जीवन जीते हैं रिश्तों की खास अहमियत होती है। वो रिश्ते चलते रहते हैं मगर एक वक्त ऐसा भी आता है जब हम एक दूसरे से बिछड़ जाते हैं। मृत्यु के पश्चात खुद के सगे-संबंधी तक उन्हें अधिक दिनों तक याद नहीं रख पाते हैं। दुनिया में इंसान भले ही अकेले आता है, परंतु सांसारिक मोह में बंधकर रिश्तों की एक कड़ी बन जाती है। भले ही मरने के साथ इंसान खत्म हो जाता है लेकिन उसकी आत्मा समाप्त नहीं होती है। मृतक की आत्मा अपने आगे के सफर को तभी तय कर पाती है जब उसके सारे कर्मों का सारा हिसाब किताब हो जाता है। इन सभी बंधनों से मुक्ति के लिए हिन्दू धर्म में कर्मकांडों की व्यवस्था की गई है, जिसके तहत श्राद्ध और पिंडदान करने की परंपरा है। इसीलिए अपने पित्रों को तर्पण और निमित अर्पण करना उनकी आत्मा की शांति के लिए सबसे अहम माना गया है।
पिंडदान कैसे बनता है:
- पिंडदान में दूध, शहद, तुलसी पत्ता, तिल आदि महत्वपूर्ण होता है।
- पिंडदान में सोना, चांदी, तांबे, कांसे या पत्तल के पात्र का ही प्रयोग करना चाहिए।
- कुत्ता, कौआ और गायों को पितृपक्ष के दौरान भोजन जरूर कराएं. ऐसी मान्यता है कि कुत्ता और कौआ पित्रों के करीब होते हैं और गाएं उन्हें वैतरणी पार कराती हैं।
- श्राद्ध के लिए गया, बद्रीनाथ, हरिद्वार, गंगासागर, पुश्कर, जगन्नाथपुरी, काशी, कुरुक्षेत्र, आदि को सबसे उत्तम स्थान माना जाता है।
- पिंडदान के लिए यह जरूरी नहीं कि आप किसी श्रेष्ठ जगह ही जाएं या किसी बड़े पंडित को ही बुलाएं. सरल विधि के द्वारा आप घर पर भी श्राद्ध कार्य को कर सकते हैं।
कैसे किया जाता है पिंडदानः
1.सबसे पहले पिंडदान के समय मृतक के घरवाले जौ या चावल के आंटे में दूध और तिल मिलाकर गूथ लें और उसका गोला बना लें।
2. तर्पण करते समय पीतल की थाली या बर्तन में साफ जल भरकर उसमें थोड़े सा काला तिल व दूध डालकर अपने सामने रख लें और अपने सामने एक दूसरा खाली बर्तन रख लें।
3. दोनों हाथों को एकसाथ मिलाकर उस मृत व्यक्ति का नाम लेकर तृप्यन्ताम कहते हुये अंजली में भरे हुये जल को दूसरे खाली पात्र में छोड़ दें।
4. जल में काले तिल, जौ, कुशा एवं सफेद फूल मिलकार उस जल से विधिपूर्वक तर्पण किया जाता है, इससे पितर तृप्त होते हैं।
5. इसके बाद श्राद्ध के बाद ब्राह्मण को भोजन कराकर यथाशक्ति दान दिया जाता है.