शनिवार, 23 मार्च 2019

जस्टिस पिनाकी बने लोकपाल, लिया शपथ

देश के पहले लोकपाल बने जस्टिस पिनाकी चंद्र घोष, लिया शपथ




     सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस पिनाकी चंद्र घोष ने देश के पहले लोकपाल के तौर पर शपथ ले ली। आम चुनावों से ठीक पहले लोकपाल की नियुक्ति को लेकर काफी राजनीतिक विवाद भी हुआ।     जस्टिस घोष को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने देश के पहले लोकपाल के तौर पर शपथ दिलाई। इस मौके पर प्रधानमंत्री मोदी भी मौजूद थे।


जस्टिस घोष को प्रेजिडेंट रामनाथ कोविंद ने पद की शपथ दिलाई। इस मौके पर उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीफ जस्टिस रंजन गोगोईव भी मौजूद थे।
 जस्टिस घोष इससे पहले आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट के जज रह चुके हैं। जस्टिस घोष वर्तमान में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सदस्य भी हैं और मानवाधिकार कानूनों के जानकार के तौर पर उन्हें माना जाता है।

जस्टिस पी. सी. घोष को लोकपाल नियुक्त करने के साथ न्यायिक सदस्यों के तौर पर जस्टिस दिलीप बी. भोंसले, जस्टिस प्रदीप कुमार मोहंती, जस्टिस अभिलाषा कुमारी, जस्टिस अजय कुमार त्रिपाठी होंगे।न्यायिक सदस्यों के साथ ही कमिटी में 4 अन्य सदस्यों के तौर पर दिनेश कुमार जैन, अर्चना रामसुंदरम, महेंद्र सिंह और डॉक्टर इंद्रजीत प्रसाद गौतम भी शामिल किए गए हैं।

बेबस माँ को है अपने नवजात हेतु मसीहा का तलास

रांची रिम्स के बरामदे पर अपने तीन नवजात शिशुओं के साथ पड़ी है एक बेबस माँ , मसीहा की है तलास


सवा माह के तीन बच्चों को लेकर पिछले पांच दिनों से एक मां रिम्स के बरामदे में पड़ी हुई है। क्योंकि एक साथ जन्म लिए तीनों बच्चों की आंखें खराब हो गई हैं। बच्चों की आंखों के इलाज के लिए परिवार के पास पैसे नहीं हैं, ऐसे में उन्हें कोई रास्ता भी नहीं सूझ रहा है। राज्य के सबसे बड़े मेडिकल संस्थान में बच्चों की आंखों में रोशनी आ जाएगी, इस भरोसे में मां इंदू देवी रिम्स के बरामदा से हटने का नाम नहीं ले रही है। जबकि रिम्स के कर्मचारियों ने उसे बता दिया है कि लेजर ऑपरेशन करने की मशीन यहां नहीं है। बच्चे को बाहर ले जाना पड़ेगा, तभी आंखों की रोशनी लौट सकती है। इसके बावजूद इंदू देवी रिम्स से टस से मस नहीं हुई। पूछने पर एक ही रट लगाती है कि मेरे बच्चों की आंखों की रोशनी लौटा दो, ताकि वे दुनिया देख सके।

क्या है मामला :-

बीते 8 फरवरी को झारखण्ड की सांस्कृतिक राजधानी देवघर में एक साथ तीन बच्चों को जन्म देने के बाद एक लाचार मां लगातार अस्पताल के चक्कर लगा रही है। जन्म के बाद से ही तीनों बच्चों को अस्पताल में शारीरिक कमजोरी के कारण भर्ती कराना पड़ा।
लगभग 20 दिनों तक देवघर के डॉ. सतीश ठाकुर की देखरेख में अस्पताल में रखने के बाद चिकित्सक ने मां को बताया कि तीनों बच्चों की आंखें खराब हो चुकी हैं। उन्हें आंख के डॉक्टर के पास ले जाने की आवश्यकता है। इसके बाद परिजन बच्चों को डॉ. डीएन मिश्रा के पास ले गए, जहां तीनों को बेहतर इलाज के लिए रांची या पटना ले जाने का सलाह दी गई।

पैसे के अभाव में नहीं हो पा रहा है इलाज

तीनों बच्चों के लेकर उसके परिजन 5 दिन पहले कश्यप आई हॉस्पिटल पहुंचे। वहां तीनों बच्चों के इलाज पर लगभग 90 हजार रुपए खर्च हाेने की बात बताई गई। इतना ज्यादा पैसा नहीं होने की वजह से परिजन निराश होकर वहां से लौट आए। इसके बाद बच्चों को रिम्स में ले जाने का फैसला किया, लेकिन वहां भी निराशा ही हाथ लगी।

रिम्स में नहीं है लेजर मशीन, नही हो सकेगा इलाज़

रिम्स में बताया गया कि तीनों बच्चों की आंखों को लेजर ऑपरेशन से ठीक किया जा सकता है। हालांकि यहां बच्चों को लेजर ऑपरेशन करने वाली मशीन नहीं है। ऐसे में यहां इनका ऑपरेशन नहीं किया जा सकता है। इसके बाद तो परिजन परेशान हो गए। उनको समझ में नहीं आ रहा है कि वे तीनों बच्चों का इलाज कैसे कराएं। बच्चों के मामा विष्णु कुमार ने बताया कि फिलहाल उनके पास खाने तक के पैसे नहीं है। अभी तक पैसे की कोई व्यवस्था नहीं हो पाई है।

तीनों बच्चों को लेकर मां-दादी मदद की जोह रही बाट

तीनों बच्चों को लेकर उसके मां-दादी रिम्स में ही है। मां-दादी को अभी भी भरोसा है कि उनके बच्चे का रिम्स में इलाज हाेगा। इलाज की आस में वे लोग रिम्स में बैठे हुए हैं। वहां से आने-जाने वाले लोगों को एक-टक देखते हुए सहायता करने की आस लगाए हुए हैं। हालांकि शुक्रवार की देर रात तक पीड़ित परिवार की सहायता के लिए कोई आगे नहीं आया था।

आयुष्मान भारत योजना भी हो गयी फेल

परिजनों ने रिम्स के कई कर्मचारियों से मदद की गुहार लगाई, लेकिन डॉक्टर तक पहुंचाने की जहमत किसी ने नहीं उठाई। ऐसे में अब मां के साथ पूरे परिवार का भरोसा सिस्टम से उठ रहा है।                 बेबस माँ इंदू ने बताया कि प्रधानमंत्री ने आयुष्मान भारत योजना से गरीबों का इलाज कराने का वादा किया था, लेकिन जब रिम्स में ऑपरेशन करने की मशीन नहीं है तो ऐसी योजना का क्या फायदा है।

बिहार के एनडीए उम्मीदवारों की सूची

लोकसभा चुनाव हेतु बिहार प्रदेश के घोषित एनडीए  उम्मीदवार सूची...


वाल्मिकी नगरः वैद्यनाथ प्रसाद महतो (जेडीयू)

पश्चिम चंपारणः संजय जायसवाल (बीजेपी)

पूर्वी चंपारणः राधामोहन सिंह (बीजेपी)

शिवहरः रमा देवी (बीजेपी)

सीतामढ़ी वरूण कुमार (जेडीयू)

मधुबनीः अशोक कुमार यादव (बीजेपी)

झंझारपुरः राम प्रीत मंडल (जेडीयू)

सुपौलः दिलेश्वर कामवत (जेडीयू)

अररियाः प्रदीप सिंह (बीजेपी)

किशनगंजः महमूद अशरफ (जेडीयू)

कटिहारः दुलाल चंद्र गोस्वामी

पूर्णिया (संतोष कुमार कुशवाहा

मधेपुराः दिनेश चंद्र यादव (जेडीयू)

दरभंगाः गोपाल जी ठाकुर (बीजेपी)

मुज़फ़्फ़रपुरः अजय निषाद (बीजेपी)

वैशालीः वीणा देवी (लोजपा)

गोपालगंजः डॉ. आलोक कुमार सुमन (जेडीयू)

सिवानः कविता सिंह (जेडीयू)

महाराजगंजः जर्नादन सिंह बीजेपी

सारणः राजीव प्रताप रूडी (बीजेपी)

हाजीपुरः पशुपति कुमार पारस (लोजपा)

उजियारपुरः नित्यानंद राय (बीजेपी) बीजेपी अध्यक्ष

समस्तीपुरः राम चंद्र पासवान (लोजपा)

बेगूसरायः गिरिराज सिंह (बीजेपी)

खगड़िया पर अभी उम्मीदवार का ऐलान नहीं किया गया है.

भागलपुरः अजय कुमार मंडल (जेडीयू)

बांकाः गिरधारी यादव (जेडीयू)

मुंगेरः राजीव रंजन सिंह (ललन सिंह) (जेडीयू)

नालंदाः कौशलेंद्र कुमार (जेडीयू)

पटना साहिबः रवि शंकर प्रसाद (बीजेपी)

पाटलिपुत्रः राम कृपाल यादव (बीजेपी)

आराः राजकुमार सिंह (बीजेपी)

बक्सरः अश्विनी कुमार चौबे (बीजेपी)

सासारामः छेदी पासवान (बीजेपी)

काराकट महाबलि सिंह (जेडीयू)

जहानाबादः चंद्रेश्वर प्रसाद (जेडीयू)

औरंगाबादः सुशील कुमार सिंह (बीजेपी

गयाः विजय कुमार मांझी (जेडीयू)

नवादाः चंदन कुमार (लोजपा)

जमुईः चिराग कुमार पासवान (लोजपा)

शुक्रवार, 22 मार्च 2019

निर्दलीय चुनाव लड़ेगी बांका से पुतुल सिंह

एनडीए के खिलाफ बागी तेवर अख्तियार करेगी पुतुल सिंह , 25 को करेगी नामांकन


बांका :  बीजेपी नेता और पूर्व सांसद पुतुल सिंह ने बीजेपी से बगावत कर दी है। बांका से बीजेपी टिकट की उम्मीद लगाए बैठीं पुतुल सिंह को उस वक़्त निराशा हाथ लगी जब बांका सीट जेडीयू के पाले में चली गई।

बांका पहुंची पुतुल सिंह ने अपने समर्थकों के साथ बैठक के बाद आखिरकार यह फैसला किया है कि वह बांका से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव मैदान में उतरेंगीं।

पुतुल सिंह आगामी 25 मार्च को अपना नामांकन दाखिल करने जा रही हैं। पूर्व केंद्रीय मंत्री स्व दिग्विजय सिंह की पत्नी पुतुल सिंह बांका लोकसभा सीट से सांसद रह चुकी हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने आरजेडी के जयप्रकाश नारायण यादव को कड़ी टक्कर दी थी। लेकिन वह आखिरकार लगभग 10  हजार वोट से चुनाव हार गईं थीं।

पुतुल सिंह ने पार्टी लाइन से अलग जाते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि बांका लोकसभा क्षेत्र उनके पति पूर्व केंद्रीय मंत्री स्वर्गीय दिग्विजय सिंह की यादें जुड़ी हैं और वह मूकदर्शक बनकर इस क्षेत्र की जनता को उसके हाल पर नहीं छोड़ सकतीं। लिहाजा बांका की जनता के लिए वह निर्दलीय चुनाव लड़ेंगी।

गौरतलब है कि समता पार्टी के दौर से दिग्विजय सिंह जॉर्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार के साथ रहे लेकिन जब साल 2009 में पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दिया तो दिग्विजय सिंह ने निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव में जीत हासिल की। तब उनके सामने जेडीयू के उम्मीदवार दामोदर रावत तीसरे स्थान पर रह गए थे।

एक सौ सात साल का हुआ बिहार

सभी बिहारवासियों के साथ साथ देशवासियों को "बिहार दिवस" की ढेरों शुभकामनाये एवं बधाई...." जय बिहार "

आज बिहार को अलग हुए पुरे 107 साल हो गए हैं। आजादी का जश्न सब पर चढ़ कर बोल रहा हैं। लोग ऐसे प्रतिक्रिया कर रहे हैं जैसे हम कभी गुलाम ही ना हो। सुशासन का असर हरेक गली चौराहे पर दिख रहा हैं। लोग जश्ने आज़ादी में झूम रहे हैं। लोग उत्साहित हैं औरजोश में भी, लेकिन इन जोश और खरोश में हम बिहार के विभाजन का सही अर्थ को नहीं समझ पाए हैं।
                       ये आलेख शायद आपको इतिहास के उस पन्नो से रूबरू करा सके जिसकी आपको तलाश हैं ।
वैसे तो बिहार की प्रशासनिक पहचान का अंत होना 1765 में ही शुरू हो गया था जब ईस्ट इंडिया कम्पनी को इसकी दीवानी मिली थी। उसके बाद यह महज एक भौगोलिक इकाई बन गया, अगले सौ सवा सौ सालों में बिहारी एक सांस्कृतिक पहचान के रूप में तो रही लेकिन इसकी बिहार का प्रांतीय या प्रशासनिक पहचान मिट सा गया। बिहार का इतिहास संभवतः सच्चिदानन्द सिन्हा से शुरू होता है क्योंकि राजनीतिक स्तर पर सबसे पहले उन्होंने ही बिहार की बात उठाई थी। कहते हैं, डा. सिन्हा जब वकालत पास कर इंग्लैंड से लौट रहे थे तब उनसे एक पंजाबी वकील ने पूछा था कि मिस्टर सिन्हा आप किस प्रान्त के रहने वाले हैं। डा. सिन्हा ने जब बिहार का नाम लिया तो वह पंजाबी वकील आश्चर्य में पड़ गया। इसलिए क्योंकि तब बिहार नाम का कोई प्रांत था ही नहीं। उसके यह कहने पर कि बिहार नाम का कोई प्रांत तो है ही नहीं, डा. सिन्हा ने कहा था, नहीं है लेकिन जल्दी ही होगा। यह घटना फरवरी, 1893 की बात है। उसके बाद एक से एक ऐसे हादसे होते गए जिसने बिहारी अस्मिता को झंकझोर कर रख दिया , एक समय ऐसा भी आया जब बिहारी युवाओं (पुलिस) के कंधे पर ‘बंगाल पुलिस’ का बिल्ला लटकाए बिहार की जमीन पर काम करना पड़ता था।
                     उस समय बिहार की आवाज बुलंद करने के लिए चंद ही लोग थे, जिनमे महेश नारायण, अनुग्रह नारायण सिंह, नंदकिशोर लाल, राय बहादुर और कृष्ण सहाय आदि प्रमुख थे। ना कोई अखबार था ना कोई पत्रकार बिहार से प्रकशित एक मात्र अखबार 'द बिहार हेराल्ड' था जो बिहारियों के हित के लिए बात करता था। तमाम बंगाली अखबार बिहार पृथक्करण का विरोध करते थे, कुछ बिहारी पत्रकार बिहार हित की बात तो करते थे लेकिन अलग बिहार के मुद्दे पर एकदम अलग राय रखते थे। बिहार को अलग राज्य के पक्ष में जनमत तैयार करने या कहें की माहौल बनाने के उद्देश्य से 1894 में डॉ. सिन्हा ने अपने कुछ सहयोगियों के साथ ‘द बिहार टाइम्स’ अंग्रेज़ी साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू किया।            स्थितियां बदलते देख बाद में ‘बिहार क्रानिकल्स’ भी बिहार अलग प्रांत के आन्दोलन का समर्थन करने लगा। 1907 में महेश नारायण की मृत्यु के बाद डॉ. सिन्हा अकेले हो गए। इसके बावजूद उन्होंने अपनी मुहिम को जारी रखा। और 1911 में अपने मित्र सर अली इमाम से मिलकर केन्द्रीय विधान परिषद में बिहार का मामला रखने के लिए उत्साहित किया। 12 दिसम्बर 1911 को ब्रिटिश सरकार ने बिहार और उड़ीसा के लिए एक लेफ्टिनेंट गवर्नर इन कौंसिल की घोषणा कर दी। धीरे धीरे उनकी मुहीम रंग लाइ और 22 मार्च 1911 को बिहार बंगाल से अलग हो स्वतंत्र राज्य हो गया।
                          1911 में बिहार के बंगाल से अलग होने के एक सौ पांच बरस हो चुके हैं. आज भी इतिहास के इस मोड का बिहार की ओर से इतिहास के इस पहलु को दिखाने का अभाव है। क्या कारण था कि बिहार को बंगाल से अलग लेने का निर्णय ब्रिटिश सरकार ने लिया ... इस प्रश्न का एक उत्तर यह दिया जाता है कि ब्रिटिश सरकार बंगाल के टुकडे करके उभरते हुए राष्ट्रवाद को कमजोर करना चाहती थी। पहले उसने बंग-विभाजन के द्वारा ऐसा करने की कोशिश की और फिर बाद में बंगाल से बिहार और उडीसा को अलग करके यही दोहराया।                   वैसे बंग विभाजन का जो विरोध बंगाल ने किया उतना विरोध बिहार विभाजन के समय नहीं हुआ, यह लगभग स्वाभाविक था क्योंकि बिहार को पृथक राज्य बनाने के लिए हुए आन्दोलन के पीछे सच्चिदानंद सिन्हा एवं महेश नाराय़ण समेत अन्य आधुनिक बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में इसका शंखनाद हुआ था।

"बिहार बिहारियों के लिए" का विचार सर्वप्रथम मुंगेर के एक उर्दू अखबार मुर्घ -इ- सुलेमान ने पेश किया था.एक अन्य पत्र कासिद ने भी इसी तरह के वक्तव्य प्रकाशित किए. इसी दशक में बिहार के प्रथम हिन्दी पत्र- बिहार बन्धु जिसके संपादक केशवराम भट्ट थे ने भी इस तरह के विचार को आगे बढाया. तब से लेकर 1994 तक विविध रूपों में यह विचार व्यक्त होता रहा जिसका ही एक प्रतिफलन बिहार का बंगाली विरोधी आन्दोलन था जो बिहार के प्रशासन और शिक्षा के क्षेत्र में बंगालियों के वर्चस्व के विरोध के रूप में उभरा. एल. एस. एस ओ मैली से लेकर वी सी पी चौधरी तक विद्वानों ने बिहार के बंगाल के अंग के रूप में रहने के कारण बढे पिछडेपन की चर्चा की है. इस चर्चा का एक सुंदर समाहार गिरीश मिश्र और व्रजकुमार पाण्डेय ने प्रस्तुत किया है.

                    इन चर्चाओं में यह कहा गया है कि अंग्रेज़ बिहार के प्रति लापरवाह थे और बिहार लगातार उद्योग धंधे से लेकर शिक्षा, व्यवसाय और सामाजिक क्षेत्र में पिछडता जा रहा था। चूँकि बिहार में बर्धमान के राजा या कासिमबाजार के जमींदार की तरह के बडे जमींदार नहीं थे यहाँ के एलिट भी उपेक्षित ही रहे. दरभंगा महाराज को छोडकर बिहार के किसी बडे जमींदार को अंग्रेज महत्त्व नहीं देते थे। जिस क्षेत्र में विदेशियों के साथ व्यापार का इतना महत्त्वपूर्ण सम्पर्क था उसका बंगाल के अंग के रूप में रहकर जो हाल हो गया था उससे यह निष्कर्ष निकालना स्वाभाविक था कि बिहार को बंगाल के भीतर रहकर प्रगति के लिए सोचना असंभव था।

बिहार को बंगाल प्रेसिडेंसी से अलग कर एक अलग राज्य का निर्माण 1870 से ही शुरू हो गया था जब बिहार के पढ़े लिखे लोगों को ये समझ में आना शुरू हो गया की स्कूल, कॉलेज से लेकर अदालत और किसी भी सरकारी दफ्तरों की नौकरियों में बंगालियों का वर्चस्व अनैतिक है और जनतंत्र के खिलाफ भी।बिहार के प्रथम समाचार पत्र बिहार बन्धु में इस आशय के पत्र और लेख प्रकाशित हुए जिसमें यहाँ तक कहा गया कि बंगाली ठीक उसी तरह बिहारियों की नौकरियाँ खा रहे हैं जैसे कीडे खेत में घुसकर फसल नष्ट करते हैं! सरकारी मत इससे अलग था उनके अनुसार बंगाली; बिहारियों की नौकरियों पर बेहतर अंग्रेज़ी ज्ञान के कारण कब्ज़ा जमाए हुए हैं। 1872 में , बिहार के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर जॉर्जे कैम्पबेल ने लिखा था कि चूंकि बिहार का शासन बंगाल से बंगाली अधिकारियों द्वारा नियंत्रित किया जाता है, इसलिए हर मामले में अंग्रेजी में पारंगत बंगालियों की तुलना में बिहारियों के लिए असुविधाजनक स्थिति बनी रहती है। सरकारी द्स्तावेज़ों और अंग्रेज़ों द्वारा लिखित समाचार पत्रों के लेखों में भी यही भाव ध्वनित होता था.
                         यह बात खास तौर पर कही जाती थी कि शिक्षित बंगाली रेल की पटरियों के साथ साथ पंजाब तक नौकरियाँ पाते गये। कलकत्ता से प्रकाशित एक पत्र के सम्पादकीय में इस बात का विश्लेषण खास तौर किया गया गया लिखा गया की बिहार के लगभग सभी सरकारी नौकरियाँ बंगाली के हाथों में हैं. बडी नौकरियाँ तो हैं ही छोटी नौकरियों पर भी बंगाली ही हैं। जिलेवार विश्लेषण करके पत्र में लिखा गया कि भागलपुर, दरभंगा, गया, मुजफ्फरपुर, सारन, शाहाबाद और चम्पारन जिलों के कुल 25 डिप्टी मजिस्ट्रेटों और कलक्टरों में से 20 बंगाली हैं. कमिश्नर के दो सहायक भी बंगाली हैं. पटना के 7 मुंसिफों ( भारतीय जजों) में से 6 बंगाली हैं. और यही स्थिति सारन की भी है जहां 3 में से 2 बंगाली हैं। छोटे सरकारी नौकरियों में भी यही स्थिति है। मजिस्ट्रेट , कलक्टर, न्यायिक दफ्तरों में 90 प्रतिशत क्लर्क बंगाली हैं। यह स्थिति सिर्फ जिले के मुख्यालय में ही नहीं हैं, सब-डिवीजन स्तर पर भी यही स्थिति है. म्यूनिसिपैलिटी और ट्रेजेरी दफ्तरों में बंगाली छाए हुए हैं। इस प्रकार के आँकडे देने के बाद पत्र ने अन्य प्रकार की नौकरियों का हवाला दिया था. पत्र के अनुसार दस में से नौ डॉक्टर और सहायक सर्जन बंगाली हैं. पटना में आठ गज़ेटेड मेडिकल अफसर बंगाली हैं. सभी भारतीय इंजीनियर के रूप में कार्यरत बंगाली हैं. एकाउंटेंट, ओवरसियर एवं क्लर्कों में से 75 प्रतिशत बंगाली ही हैं. संपादकीय का सबसे दिलचस्प हिस्सा वह था जिसमें यह उल्लेख किया गया था कि जिस दफ्तर में बिहारी शिक्षित व्यक्ति कार्यरत है उसको पग पग पर बंगाली क्लर्कों से जूझना पडता हैं और उनकी मामूली भूलों को भी सीनियर अधिकारियों के पास शिकायत के रूप में दर्ज कर दिया जाता हैं।सम्पादकीय का निष्कर्ष था कि बिहार की नौकरियों को बंगाली आकांक्षाओं की सेवा में लगा दिया गया है।बंगालियों के बिहार में आने के पहले नौकरियों में कुलीन मुसलमानों और कायस्थों का कब्ज़ा था। स्वाभाविक था कि बंगालियों के खिलाफ सबसे मुखर मुसलमान और कायस्थ ही थे।
           यहीं से 'बिहार बिहारियों के लिए' का नारा उठा, पहले कुलीन मुसलमानों ने इसे मुद्दा बनाया और बाद में कायस्थों ने। अंग्रेज़ी शिक्षा के क्षेत्र में बिहार ने बहुत कम तरक्की की थी, सबकुछ कलकत्ता से ही तय होता था इसलिए बिहार में कॉलेज भी कम ही खोले गये. यह बहुत प्रचारित नहीं है कि जब कॉलेज खोलने का निर्णय किया गया तो ब्रिटिश कम्पनी सरकार ने तय किया था कि बंगाल प्रेसिडेंसी में दो कॉलेज खोले जाएं- एक अंग्रेजी शिक्षा के लिए कलकत्ता में और एक संस्कृत शिक्षा के लिए तिरहुत अंचल में क्योंकि पारम्परिक संस्कृत शिक्षा केन्द्र के रूप में तिरहुत प्रसिद्ध था। यह बंगाल के प्रसिद्ध भारतियों को पसंद नहीं आया और प्रयत्न करके संस्कृत कॉलेज भी कलकत्ता में ही खोला गया। बिहार में बडे कॉलेज के रूप में पटना कॉलेज था जिसकी स्थापना 1862-63 में की गयी थी. इस कॉलेज में बंगाली वर्चस्व इतना अधिक था कि 1872 में जॉर्ज कैम्पबेल ने यह निर्णय लिया कि इसे बंद कर दिया जाए। वे इस बात से क्षुब्ध थे कि 16 मार्च 1872 को कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में उपस्थित 'बिहार' के सभी छात्र बंगाली थे! यह सरकारी रिपोर्ट में उद्धृत किया गया है कि "हम बिहार में कॉलेज सिर्फ प्रवासी बंगाली की शिक्षा के लिए खुला नहीं रखना चाहते". इस निर्णय का विरोध बिहार के बडे लोगों ने किया. इन लोगों का कथन था कि इस कॉलेज को बन्द न किया जाए क्योंकि बिहार में यह एकमात्र शिक्षा केन्द्र था जहाँ बिहार के छात्र डिग्री की पढाई कर सकते थे।

                 बिहार की सरकारी नौकरियों में बंगाली वर्चस्व पर कई सरकारी रिपोर्टों में प्रमुखता से लिखा गया। यहाँ तक की एक रिपोर्ट ऐसी भी थी जिसमे ये कहा गया की बिहारी ;बंगाली के रहमोकरम पर हैं जो नौकरी वो नहीं करना चाहते वो बिहारियों को मिल जाती हैं। इस रिपोर्ट ने तहलका मचा दिया अंतत: सरकार जगी और सरकारी आदेश दिए गए कि जहाँ-जहाँ  रिक्त स्थान हैं उनमें उन बिहारियों को ही नौकरी पर रखा जाए जिन्हें शिक्षा का सुयोग मिला है। आदेश में कई जगहों पर यह स्पष्ट कहा जाता था कि इसे बंगालियों को नहीं दिया जाए। इसी तरह के कुछ आदेश उत्तर पश्चिम प्रांत में भी दिए गये थे. इस तरह के सरकारी विज्ञापन भी समाचार पत्रों में छपा करते थे जिसमें स्पष्ट लिखा होता था- "बंगाली बाबु आवेदन न करें". बिहार में भी 1870 और 1880 के दशक में कई सरकारी आदेश दिए गये थे जिसमें यह कहा गया था कि बिहारियों को ही इन नौकरियों में नियुक्त किया जाए।बिहार के कई समाचार पत्रों में इस आशय के कई लेख और पत्र प्रकाशित होते रहे जिसमें यह कहा जाता था कि बिहार की प्रगति में बडी बाधा बंगालियों का वर्चस्व है. नौकरियों में तो बंगाली अपने अंग्रेज़ी ज्ञान के कारण बाजी मार ही लेते थे बहुत सारी जमींदारियां भी बंगालियों के हाथों में थी।

इसमें संदेह नहीं कि बंगालियों के प्रति सरकारी विद्वेष के पीछे सिर्फ स्थानीय लोगों के प्रति उनका लगाव नहीं था. विभिन्न कारणों से बंगाल में चल रही गतिविधियों से जुडने के कारण बिहार में भी बंगाली समाज सामाजिक और राजनैतिक रूप से सजग था. उनके प्रभाव से शांत समझा जाने वाला प्रदेश बिहार भी अंग्रेज़ विरोधी राष्ट्रवादी आन्दोलन से जुडने लगा था. कई इतिहासकारों का मत है कि बंगालियों के प्रति बिहारियों के मन में विद्वेष को बढाने में सरकार की एक चाल थी. वे नहीं चाहते थे कि राष्ट्रीय और क्रांतिकारी विचारों का जोर बिहार में बढे.

इसमें संदेह नहीं कि बिहार में बंगाली नवजागरण का प्रभाव पडा था और बिहार के बंगाली राजनैतिक और बौद्धिक क्षेत्र में आगे बढे हुए थे. शैक्षणिक, स्वास्थ्य, सार्वजनिक संगठन तथा समाज सुधार के क्षेत्र में बंगाली समाज बिहार में बहुत सक्रिय था. यह नहीं भूला जा सकता कि भूदेव मुखर्जी जैसे बंगाली बुद्धिजीवी-अधिकारी के कारण ही हिन्दी को बिहार में प्रशासन और शिक्षा के माध्यम के रूप में स्वीकृति मिल सकी। बिहार में प्रेस के क्षेत्र में क्रांतिकारी भूमिका प्रदान करने वाले दो महापुरूषों- केशवराम भट्ट और रामदीन सिंह को आज बिहार के पत्रकार भुला ही चुके हैं। इन सबके बावजूद यह मानना ही पडेगा कि बिहार के बहुत सारे शिक्षित लोगों को यह लगता था कि बंगाल के साथ होने के कारण और प्रशासन का कलकत्ता से नियंत्रण होने के कारण बिहारियों के प्रति सरकार पूरी तरह से न्याय नहीं कर पाती। और यही एक खास वजह थी जिसने  बिहार को अलग करने में खास भूमिका निभाई।

                     बंगाल से बिहार के अलग होने की प्रशासनिक भूमिका के दशकों पहले से बिहार के पढ़े-लिखो के बीच बंगाली वर्चस्व के विरूद्ध भाव सक्रिय होने लगे थे. इस भाव का एक प्रकाशन अल- पंच में 1889 में प्रकाशित नज़्म में मिला था जिसका शीर्षक था- 'सावधान ! ये बंगाली है". ऐसे ही भाव की एक और प्रस्तुति 1880 में 'बिहार के एक शुभ-चिंतक' का पत्र है जिसमें बंगालियों की तुलना दीमकों से की गई है जो बिहार की फसल (नौकरियों) को 'खा रहे हैं'. बुद्धिजीवियों के बीच बंगाली वर्चस्व के प्रति इस भाव के कारण ही इस बात के लिए समर्थन पैदा होने लगा कि बंगाल के साथ रहकर बिहारियों की स्वार्थ -रक्षा संभव नहीं हैं।

                1890 के दशक में बिहार की पत्र पत्रिकाओं में (खासकर बिहार टाइम्स में ) इस आशय के लेख नियमित रूप से छपने लगे जिसमें बिहार की दयनीय स्थिति के प्रति सचेतनता और परिस्थिति के प्रति आक्रोश व्यक्त किया गया था। बिहार टाइम्स ने लिखा था कि बिहार की आबादी 2 करोड 90 लाख है और जो पूरे बंगाल को एक तिहाई राजस्व देते हैं उसके प्रति यह व्यवहार अनुचित है। इस पत्र ने विभिन्न क्षेत्रों में बिहारियों के प्रतिनिधित्व को लेकर जो तथ्य सामने रखे उसे ध्यान में रखने पर बंगाल में बिहार की उपेक्षा की सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता। ऐसे अनेक कारण थे जो बिहार के क्षेत्र में बिहारियों की उपेक्षा को दिखाते थे जैसे - बंगाल प्रांतीय शिक्षा सेवा में 103 अधिकारियों में से सिर्फ 3 बिहारी थे, मेडिकल एवं इंजीनियरिंग शिक्षा की छात्रवृत्ति सिर्फ बंगाली ही पाते थे, कॉलेज शिक्षा के लिए आवंटित 3.9 लाख में से 33 हजार रू ही बिहार के हिस्से आता था, बंगाल प्रांत के 39 कॉलेज (जिनमें 11 सरकारी कॉलेज थे) में बिहार में सिर्फ 1 था, कल-कारखाने के नाम पर जमालपुर रेलवे वर्कशॉप था (जहाँ नौकरियों में बंगालियों का वर्चस्व था) , 1906 तक बिहार में एक भी इंजीनियर नहीं था और मेडिकल डॉक्टरों की संख्या 5 थी।

                         ऐसे हालात में बिहारी प्रबुद्धों द्वारा बिहार को पृथक राज्य बनाए जाने का समर्थन दिया जाने लगा और स्वदेशी आन्दोलन के उपरांत हालात ऐसे हो गये कि कांग्रेस के 1908 के अपने प्रांतीय अधिवेशन में बिहार को अलग प्रांत बनाए जाने का समर्थन किया गया। कुछ प्रमुख मुस्लिम नेतागण भी सामने आये जिन्होंने हिन्दू मुसलमान के मुद्दे को पृथक राज्य बनने में बाधा नहीं बनने दिया। इन दोनों बातों से अंग्रेज शासन के लिए बिहार को अलग राज्य का दर्जा दिए जाने का मार्ग सुगम हो गया।

             अंतत: वह घडी आयी और 12 दिसंबर 1911 को बिहार को अलग राज्य का दर्जा मिल गया और आखिरकार 145 बर्ष बाद बिहार को उसका सम्मान प्राप्त हो गया।                        बिहार के इतिहास में 12 दिसंबर 1911 का दिन मील का पत्थर साबित हुआ। इसी दिन ब्रिटिश सरकार ने भारत की राजधानी कलकत्ता से स्थानांतरित कर दिल्ली ले जाने की घोषणा की। बिहार को बंगाल से अलग कर गर्वनर इन काउंसिल के शासन वाला राज्य घोषित कर दिया।

                        इसके बाद 22 मार्च 1912 को की गयी उद्घोषणा के द्वारा बंगाल से अलग कर बिहार को नए राज्य का दर्ज मिला । जिसमें भागलपुर, मुंगेर, पूर्णिया एवं भागलपुर प्रमंडल के संथाल परगना के साथ-साथ पटना, तिरहुत, एवं छोटानागपुर को शामिल किया गया।                   सर चाल्र्स स्टूबर्स बेले, के.सी.एस.आई. राज्य के प्रथम राज्यपाल तथा उपराज्यपाल नियुक्त किए गए। 29 दिसंबर 1920 को बिहार राज्य को राज्यपाल वाला प्रांत बनने का गौरव प्राप्त हुआ। महामहिम रायपुर वासी सत्येन्द्र प्रसन्नो सिन्हा राज्य के प्रथम भारतीय राज्यपाल नियुक्त किए गए।  मार्च 1920 में लेजिस्लेटिव काउंसिल भवन की स्थापना की गयी। सात फरवरी 1921 को सर मुडी की अध्यक्षता में प्रथम बैठक आयोजित की गयी जो आज बिहार विधानसभा कहलाता है।

            बिहार के अंतिम राज्यपाल सर जेम्स डेविड सिफटॉन हुए। वर्ष 1935 में बिहार विधान परिषद भवन का निर्माण शुरू किया गया। गर्वमेंट आफ इंडिया एक्ट 1935 में निहित प्रावधानों के अनुसार एक अप्रैल 1937 को प्रांतीय स्वायत्ता का श्रीगणेश हुआ। जिसके तहत द्विसदनीय व्यवस्था की शुरूआत हुई। इसके तहत बिहार विधानसभा व विधान परिषद प्रस्थापित किया गया। इसके तहत 22-29 जनवरी 1937 की अवधि में बिहार विधानसभा का चुनाव संपन्न हुआ।

                     20 जुलाई 1937 को डा. श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में प्रथम सरकार का गठन हुआ। उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में चुना गया। 22 जुलाई 1937 को विधानमंडल का प्रथम अधिवेशन हुआ। स्वाधीनता के बाद 15 अगस्त 1947 को श्री जयरामदास दौलत राम प्रथम राज्यपाल नियुक्त किए गए। पुन: बिहार विधानसभा के चुनाव के बाद 29 अप्रैल 1952 को श्रीकृष्ण सिंह मुख्यमंत्री के रूप में चुने गए।

यहाँ एक रोचक तथ्य बतलाना चाहूँगा की "बंगाल से अलग होने के बाद जब पटना को बिहार की राजधानी बनाने का फैसला लिया गया, तो इस शहर में आधारभूत संरचनाओं का घोर अभाव था। इसे तैयार करने में समय लगता, जबकि सरकार पटना से चलना था। ऐसे में दरभंगा के महाराजा रामेश्वर सिंह ने पटना के छज्जू बाग को खरीदा और वहां अस्थायी तौर पर विधानसभा और सचिवालय का निर्माण कराया। उस वक्त अगर ऐसा नहीं किया जाता तो बिहार-उडीसा की संयुक्त राजधानी पटना की जगह कटक बन सकता था। उस अस्थाई भवन में विधानसभा तक तक चला जब तक नया भवन तैयार नहीं हो गया। उस अस्थाई विधानसभा भवन में आज पटना उच्च न्यायालय के प्रधान न्यायधीश का आवास है।"
                   आज जब बिहार बदल रहा हैं और बिहारी भी तो दुख की बात यह है कि बिहार की राजधानी पटना बनाने में अहम भूमिका निभानेवाले रामेश्वर सिंह को सौ साल गुजर जाने के बाद भी न तो बिहार याद करता है और न ही राजधानी पटना।
बिहार अलग हुआ और अपने आप पर इतराता चाणक्य के कदमो पर चलता दिन-दुनी रात तरक्की करने लगा। इस बीच बहुत से उतार चढ़ाव आये। कई राजनीती समीकरण बदले, कई बार इमरजेंसी हुई।

                जगन्नाथ और लालू ने मिलकर कई बार राज्य का बलात्कार किया। राज्य कई बार गर्त में गिरा और कई बार बुलंदी को छुआ। लालू राज के बुरे साल को झेलने के बाद नितीश का सुशासन भी बिहार ने देखा। बिहार हमेशा से एक ऐसे प्रदेश के रूप में पहचाना जा रहा हैं जो अपने आप को बदलने की बजाय देश और दुनिया को बदलने में तल्लीन रहता हैं। आज जब बिहार बदल रहा हैं, बिहार और बिहारी के बारे में सोच रहा हैं, कृषि से ज्यादा उधोग धंधे के बारे में सोच रहा हैं, चाणक्य को छोड़कर चार्वाक के बारे में सोचने लगा हैं, बिहारी संस्कृति को भुलाकर पश्चिमी रंग में रंगने लगा हैं उस समय बस एक ही टीस दिल में उठती हैं ... क्या सचमुच ये वही नालंदा विश्वविद्यालय वाला बिहार हैं जिसने आज बिहार को शिक्षा मित्र के चुंगल में धकेल दिया हैं।

"बिहार एक परिचय":-

बिहार की स्थापना – 1 अप्रैल 1912
राजधानी – पटना
उच्च न्यायालय – पटना
राजकीय भाषा – हिंदी
द्वितीय राजकीय भाषा – उर्दू
राजकीय पशु – बैल
राजकीय पक्षी – गौरेया
राजकीय पुष्प – गेंद फूल
राजकीय वृक्ष – पीपल
राजकीय चिन्ह – बोधि वृक्ष
राजकीय मछली –मांगुर
राज्य का महापर्व – छठ

राजनीतिक परिचय
****************

लोक सभा सदस्यों की संख्या – 40
लोक सभा में अनुसूचित जाति की आरक्षित सीटें –6 (गोपाल गंज ,हाजीपुर ,समस्तीपुर ,जमुई ,गया तथा सासाराम )
राज्य सभा में सदस्यों की संख्या -16
विधान सभा में सदस्यों की संख्या – 243
विधानसभा में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटें – 38
विधानसभा में अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटें – 02 (कटोरियां एवं मनिहारी )
विधानपरिषद सदस्यों की संख्या – 75
बिहार में प्रमंडलों की संख्या – 9 पटना , मगध , सारण,तिरहुत , कोसी , दरभंगा ,पुर्णिया,भागलपुर तथा मुंगेर |
बिहार में जिलों की संख्या – 38
अनुमंडलों की संख्या – 101
प्रखंडों की संख्या –534
राजस्व ग्रामों की कुल संख्या – 45098
शहरों की संख्या – 139
नगर समूह की संख्या –14
एक लाख से अधिक जनसँख्या वाले नगरों की संख्या – 19
महानगर – 1 पटना
नगर निगम की कुल संख्या – 11
नगर पंचायतों की कुल संख्या – 86
नगर परिषदों की कुल संख्या – 42
16 वीं बिहार विधानसभा चुनाव – 2015 -अक्टूबर ,नवम्बर 2015 में
चुनाव के चरण –5
विधानसभा में कुल सीटों की संख्या – 243
मतदान का प्रतिशत – 56 .8 %
राष्ट्रीय जनता दल – 80
जनता दल यूनाइटेड –71
भाजपा – 53
कांग्रेस – 27
लोक जनशक्ति पार्टी – 2
हम – 1
रालोसपा – 2
माले – 3
निर्दलीय – 4
बिहार विधानसभा के लिए निर्वाचित महिलाओं की संख्या – 19
बिहार की जनसंख्या
कुल जनसंख्या –10,40,99,452
पुरुष जनसंख्या-5,42,78,157
महिला जनसंख्या – 4,98,21,295
कुल जनसंख्यां में पुरुषों का हिस्सा – 52.14%
कुल जनसंख्या में महिलाओं का हिस्सा- 47.86%
ग्रामीण जनसंख्या – 7,43,16,709
शहरी जनसंख्या- 86,81,800
कुल जनसंख्या में ग्रामीण जनसंख्या का प्रतिशत – 88.7%
कुल जनसंख्या में शहरी जनसंख्या का प्रतिशत- 11.29%
0 -6 आयवर्ग की कुल जनसंख्या – 98,87,239
अनुसूचित जातियों की जनसंख्या – 1,30,48,608
अनुसूचित जातियों की जनसंख्या का प्रतिशत –15.72%
सर्वाधिक अनुसूचित जाति की आबादी वाला जिला – गया
न्यूनतम अनुसूचित जाति की आबादी वाला जिला – किशनगंज
अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या – 7,58,351
अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या का प्रतिशत – 1.3%
सर्वाधिक अनुसूचित जनजाति की आवादी वाला जिला – कटिहार
न्यूनतम अनुसूचित जनजाति की आवादी वाला जिला – शिवहर
लिंगानुपात- 918/1000
देश की कुल जनसंख्या में बिहार की जनसंख्या का प्रतिशत जनसंख्या की दृष्टि से देश में बिहार का स्थान – तीसरा
जनसंख्या की दृष्टि से सर्वाधिक बड़ा जिला – पटना
जनसंख्या की दृष्टि से सर्वाधिक छोटा जिला – शेखपुरा
जनसंख्या वृद्धि दर
2001 से 2011 के दशक जनसंख्या वृद्धि दर – 25.42%
2001 से 2011 के दशक में सर्वाधिक जनसंख्या वृद्धि दर वाला जिला – मधेपुरा
2001 से 2011 के दशक में न्यूनतम जनसंख्या वृद्धि दर वाला जिला – गोपालगंज
जन्म व मृत्यु दर
जन्म दर – 30.9 प्रति हजार
मृत्यु दर – 7.9 प्रति हजार
शिशु मृत्यु दर – 61 प्रति हजार जीवित जन्म
मातृत्व मृत्यु दर – 331 प्रति एक लाख जीवित जन्म पर
जनसंख्या घनत्व
जनसंख्या घनत्व – 1106 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर
जनसंख्या घनत्व की दृष्टि से बिहार का भारतीय राज्यों में स्थान – प्रथम
सर्वाधिक जनसंख्या घनत्व वाला जिला – शिवहर(1880)
न्यूनतम जनसंख्या घनत्व वाला जिला – कैमूर(488)
लिंगानुपात
लिंगानुपात – 918/1000
बच्चों का लिंगानुपात – 935/1000
लिंगानुपात की दृष्टि से भारत के राज्यों में क्रम –24वां
सर्वाधिक लिंगानुपात वाला जिला – गोपालगंज
न्यूनतम लिंगानुपात वाला जिला – मुंगेर
साक्षरता
बिहार की कुल साक्षरता दर – 61.80 %
पुरुष साक्षरता दर – 71.20 %
महिला साक्षरता दर – 51.5 %
साक्षरता की दृष्टि से भारत के राज्यों में क्रम – 28 वां
सर्वाधिक साक्षरता दर बल जिला – रोहतास
न्यूनतम साक्षरता दर वाला जिला – पूर्णिया
सर्वाधिक पुरुष साक्षरता दर वाला जिला – रोहतास
सर्वाधिक महिला साक्षरता दर वाला जिला – रोहतास
न्यूनतम पुरुष साक्षरता दर वाला जिला – पूर्णिया
न्यूनतम महिला साक्षरता दर वाला जिला – सहरसा
धार्मिक जनगणना
हिंदुओं की जनसंख्या –6,90,76,919 (83.2%)
मुस्लिम जनसंख्या – 1,37,22,048 (16.5 %)
ईसाई जनसंख्या – 53,137(0.06%)
सिख जनसंख्या – 20,780 (0.03%)
बौद्ध जनसंख्या – 18,818 (0.02%)
जैन जनसंख्या – 16,085 (0.02%)
हिंदुओं में लिंगानुपात – 915 महिलाएं प्रति 1000 पुरुष
मुस्लिमों में लिंगानुपात – 943 महिलाएं प्रति 1000 पुरुष
ईसाइयों में लिंगानुपात – 974 महिलाएं प्रति 1000 पुरुष
सिक्खों में लिंगानुपात – 879 महिलाएं प्रति 1000 पुरुष
बौद्धों में लिंगानुपात – 841 महिलाएं प्रति 1000 पुरुष
जैनो में लिंगानुपात – 904 महिलाएं प्रति 1000 पुरुष
हिंदुओं में साक्षरता दर – 47.9 %
मुस्लिमों में साक्षरता दर – 42 %
ईसाइयों में साक्षरता दर – 71.1 %
सिखों में में साक्षरता दर – 79.8 %
बौद्धों में में साक्षरता दर – 59 %
जैनों में साक्षरता दर – 93.3 %



      राजेश
रंगकर्मी सह पत्रकार
गिरिडीह,झारखंड।

पैतृक निवास स्थान :-
ग्राम :- नावाडीह
पोस्ट:- चान्दन
भाया:- जसीडीह
जिला:- बांका (बिहार)
पिन:- 814131

शुक्रवार, 15 मार्च 2019

बंधु तिर्की बनाये गये राष्ट्रीय खेल घोटाला का आरोपी

एसीबी ने बनाया बंधु तिर्की को राष्ट्रीय खेल घोटाला का आरोपी


चार्ज शीट दायर करने व अभियोजन चलाने की मांगी अनुमति 

34वें राष्ट्रीय खेल घोटाले की आग में आखिरकार तत्कालीन खेल मंत्री बंधु तिर्की भी झुलसते हुए नज़र आ रहे हैं। एसीबी ने उन्हें अप्राथमिकी अभियुक्त बनाते हुए सक्षम प्राधिकार से बंधु तिर्की के खिलाफ चार्ज शीट दायर करने व अभियोजन चलाने की अनुमति मांगी है। 

गौरतलब है की इस मामले में तत्कालीन खेल मंत्री बंधु तिर्की छठे अप्राथमिकी अभियुक्त हैं जिनके खिलाफ चार्जशीट दायर किया जा रहा है। बंधु के अलावा खेल सामग्री के टेंडर कमिटी के सदस्य सुविमाल मुखोपाध्याय, एच एल दास, प्रेम कुमार चौधरी, सुकदेव सुबोध गांधी और अजीत जोईस लकड़ा को भी अप्राथमिकी अभियुक्त बनाया गया है।

विदित हो कि इसी मामले में एसीबी ने पहले ही तीन नामजद अभियुक्त पीसी मिश्रा, एस एम हासमी व मधुकांत पाठक के खिलाफ चार्जशीट दाखिल कर चुका है। जबकि चौथे नामजद अभियुक्त आर के आनंद के खिलाफ चार्जशीट दायर करने व अभियोजन चलाने की अनुमति मांगी गई है। खेल विभाग ने अनुमति दे दी है अब मामला विधि विभाग के पास है।

महिला मतदाताओं को जागरूक करने चापानलों पर लगाया पोस्टर

चापानलों पर पोस्टर चिपका महिलाओं को मतदान के लिए एसडीएम कर रहे प्रेरित


धनबाद जिले में लोकसभा चुनाव में महिला मतदाताओं की मतदान के प्रति जागरूक करने के लिए एसडीएम राज महेश्वरम ने गांधी सेवा सदन समेत जिले के कई इलाकों में मतदाता जागरूकता अभियान चलाया। 
इस अवसर पर गांधी सेवा सदन में चापाकल पर मतदाता जागरूकता अभियान से संबंधित स्टीकर व परिसर में पोस्टर, बैनर लगाकर अभियान के सफलता की कामना की गई।

मौके पर एसडीएम  ने कहा कि चुनाव को लेकर लगातार मतदाता जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है।इसी कड़ी में आज जिले के सभी चापाकल पर पोस्टर, बैनर, फ्लेक्स इत्यादि लगाया जा रहा है। विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में यह अभियान चलाया जा रहा है।

 उन्होंने कहा कि मतदान में ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं की सहभागिता कम रही है। महिलाएं चापाकल का इस्तेमाल अधिक करती हैं। इसलिए महिलाओं को जागरूक करने के लिए चापाकल पर स्टीकर, पोस्टर लगाया जा रहा है।  उम्मीद ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास है कि इस कार्यक्रम से अधिक से अधिक महिलाएं मतदान करने के प्रति जागरूक होगी।

अग्रवाल ब्रदर्स दोहरे हत्याकांड में एक गिरफ्तार, तीन है फरार

अग्रवाल ब्रदर्स हत्याकांड मामले में लोकेश चौधरी का बॉर्डीगार्ड सुनील सिंह गिरफ्तार



   राजधानी रांची के अरगोड़ा थाना क्षेत्र के अशोक नगर रोड नंबर 1 में बीते 6 मार्च को हुए चर्चित अग्रवाल ब्रदर्स हत्याकांड में शामिल लोकेश चौधरी के बॉडीगार्ड सुनील सिंह को पुलिस ने बोकारो थर्मल थाना क्षेत्र से गिरफ्तार कर लिया है।

        सुनील सिंह की गिरफ्तारी और उनके बयान के आधार पर पुलिस ने कांड में प्रयुक्त लाइसेंसी रिवाल्वर,19 चक्र गोली, घटनास्थल का सीसीटीवी का डीवीआर के अलावे हेमंत अग्रवाल और महेंद्र अग्रवाल के मोबाइल का जला हुआ अवशेष बरामद किया है। वंही पुलिस ने सुनील सिंह के बोकारो स्थित आवास और धुर्वा डैम जाने वाले रास्ते से अभियुक्त सुनील सिंह का टी शर्ट और एम के सिंह के बॉर्डीगार्ड धर्मेंद्र तिवारी के शर्ट का जला हुआ अवशेष जिसे घटना के वक़्त पहना था, वह भी बरामद किया है।

गिरफ्तार हुए अभियुक्त सुनील सिंह  के हथियार से चली थी दो गोली-

एसएसपी अनीश गुप्ता ने सुनील सिंह की गिरफ्तारी के बाद प्रेस से बातचीत में बताया कि गिरफ्तार  अभियुक्त सुनील कुमार के रिवाल्वर से दो गोली चली थी। गिरफ्तार अभियुक्त सुनील कुमार का रिवाल्वर और लाइसेंस पुलिस ने बरामद कर लिया है और उससे घटना के बारे में विस्तृत जानकारी ली जा रही है।
हालांकि हत्या किस वजह हुई , इस बारे में पुलिस अब भी कुछ बताने से इंकार कर रही है। पुलिस का कहना है कि सभी आरोपियों की गिरफ्तारी होने के बाद ही हत्या के पीछे का सही कारण सामने आ पाएगा।

हत्याकांड का मुख्य आरोपी लोकेश चौधरी समेत तीन फरार:-

अग्रवाल ब्रदर्स हत्याकांड के मुख्य आरोपी लोकेश चौधरी के अलावे एमके सिंह और उनका बॉडीगार्ड धर्मेंद्र तिवारी अभी भी फरार है। इन तीनों की गिरफ्तारी के लिए पुलिस की विशेष टीम लगातार छापेमारी कर रही है।  एसएसपी अनीश गुप्ता ने कहा कि जल्द ही तीनों को गिरफ्तार कर लिया जाएगा।



साजिश के तहत दिया गया हत्या को अंजाम:-

अग्रवाल ब्रदर्स की हत्या कांड को एक साजिश के तहत अंजाम दिया गया है। दोनों भाई को अशोक नगर स्थित साधना न्यूज़ के बन्द पड़े कार्यालय में बुलाया गया फिर दोनों भाई की गोली मारकर हत्या कर दी गई। एसएसपी अनीश गुप्ता ने बताया कि फरार आरोपी एमके सिंह खुद को आईबी ऑफीसर बता कर अग्रवाल ब्रदर्स से रुपया ठगने की कोशिश कर रहे थे।

लेन-देन के विवाद में हुई थी हत्या:-

मामले के सम्बन्ध में  सुविज्ञ सूत्र बताते है कि लोकेश चौधरी और अग्रवाल ब्रदर्स के बीच पैसों का लेन-देन हुआ था। कई दिनों से अग्रवाल ब्रदर्स लोकेश से अपना पैसा वापस मांग रहे थे। लोकेश हर बार पैसा लौटाने में बहानेबाजी करता था। पैसे को लेकर दोनों पक्षों में कई बार तू-तू मैं-मैं भी हुई है। बताया जा रहा है कि हेमंत और महेंद्र ने लोकेश से 6 मार्च की शाम को बात की।  लोकेश ने उन दोनों को अशोक नगर स्थित चैनल कार्यालय में बुलाया। उसके बाद से ही दोनों भाई गायब चल रहे थे और 7 मार्च को दोनों भाइयों के शव साधना न्यूज के बंद कार्यालय से बरामद हुआ था।

मुस्लिम संगठन ने फूंका यूपीए का पुतला ,किया दो सीट पर मुस्लिम उम्मीदवार उतारने की मांग

यूपीए गठबंधन के खिलाफ मुस्लिम संगठनों का फूटा गुस्सा, किया महागठबंधन का पुतलादहन


*वोट चाहिए तो उम्मीदवार देना होगा

*आबादी के अनुपात में गोड्डा समेत दो लोकसभा सीट  पर हो मुस्लिम उम्मीदवार


       आसन्न 2019 के लोकसभा चुनाव में झारखंड के 14 लोकसभा सीट के लिए यूपीए महागठबंधन दल के कांग्रेस, जेएमएम, जेवीएम राजद दल द्वारा निर्मित सूची में एक भी मुस्लिम प्रत्याशी के नाम नही होने से नाराज मुस्लिम समाज के युवकों ने आज झारखंड की राजधानी के पुरानी रांची एवं ग्रामीण क्षेत्र के चान्हो, बेड़ो, कांके में महागठबंधन दल का सामुहिक पुतला दहन किया।

   इस पुतला दहन कार्यक्रम का नेतृत्व कर रहे आमया संगठन के अध्यक्ष एस.अली ने कहा की राज्य में निवास करने वाले 50 लाख से अधिक भारतीय  मुसलमानो को राजनीतिक हंसिये पर डालने की साचिश एनडीए के तर्ज़ पर यूपीए गठबंधन कर रही है। उन्होंने कहा कि गठबंधन दल के कांग्रेस, जेएमएम, जेवीएम, राजद वोट तो हमारा चाहते है लेकिन उम्मीदवार बनाना नही चाहतें। जिसे बार्दशत नही किया जाएगा।

  कहा कि आबादी के अनुपात में गोड्डा सहित दो लोकसभा सीट मे मुस्लिम उम्मीदवार देने की मांग को लेकर आज पुतला दहन किया गया है। 

यह भी बताया कि कल 16 मार्च को मेराहबादी रांची स्थिति महात्मा गांधी जी के प्रतिमा के समक्ष धरना दिया जाएगा । 

 आज के पुतला दहन कार्यक्रम में आमया संगठन के शाहिद अफरोज, अबरार अहमद, मो तमन, कांग्रेस अल्पसंख्यक  प्रखंड अध्यक्ष रमजान अंसारी, मो मिन्हाज, मो नदीम, मो नाहिद, मो इंन्जमाम, अमन रजा, जहांगीर अंसारी, मो सरफाज आदि शामिल थे।

शुरू हुआ खरमास , महीने भर नहीं होंगे मांगलिक कार्य

आज से शुरू हुआ खरमास, 14 अप्रैल तक वर्जित रहेगा शुभ कार्य




15 मार्च से 14 अप्रैल तक रहेगा खरमास
 खरमास (मलमास) आज 15 मार्च से शुरू हो गया है. इस मुहूर्त के लगते ही सभी शुभ कार्यों पर आज से ब्रेक लग जाएगा. ऐसा इसलिए है क्योंकि खरमास को शुभ नहीं माना गया है. हिंदू धर्म में ऐसी मान्यता है कि मलमास या खरमास का महीना शुभ नहीं होता है. इस दौरान कोई भी मांगलिक कार्य करने से परहेज करना चाहिए.
इसे अधिकमास या पुरुषोत्तममास भी कहा जाता है. हिंदू पंचांग के मुताबिक़, तीन साल बाद मलमास का महीना पड़ता है. जिस मास में सूर्य की संक्रांति नहीं होती है उस मास को मलमास माना जाता है. आइए जानते हैं इस दौरान कौन से काम नहीं करने चाहिए.

खरमास के दौरान क्या ना करें?

-खरमास में शादी जैसा शुभ कार्य बिल्कुल भी नहीं होता है.

-खरमास के दौरान कुछ नियमों का पालन करना महत्वपूर्ण माना जाता है.

-खरमास के प्रारंभ होने के बाद घर या किसी अन्य भवन का निर्माण पूर्णतः वर्जित है. इस दौरान भवन निर्माण सामग्री लेना भी अशुभ होता है.

-विवाह और उपनयन जैसे शुभ संस्कार भी इस दौरान पूर्णतः वर्जित रहते हैं. इसके अलावा गृह प्रवेश जैसे कार्य भी इस दौरान नहीं होने चाहिए.

- इस महीने किसी संपत्ति अथवा भूमि की खरीद भी बेहद अशुभ होती है. इस महीने के दौरान इससे बचना चाहिए.

-खरमास की शुरुआत के बाद नया वाहन खरीदने से भी बचना चाहिए.

खरमास की अवधि किसी भी शुभ कार्य के लिए अशुभ मानी जाती है. इसी कारण इस दौरान सारे महत्वपूर्ण कार्य जैसे शादी, यज्ञोपवीत, गृहप्रवेश इत्यादि नहीं आयोजित किए जाते. खरमास का पालन मुख्य रूप से उत्तर भारत में बिहार झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश में किया जाता है.

आखिर इसके पीछे क्या है कारण?
प्राचीन खगोलशास्त्र के अनुसार हिंदू पंचांग की गणना की जाती है. इसके अनुसार जब सूर्य 12 राशियों का भ्रमण करते हुए बृहस्पति की राशियों धनु और मीन में प्रवेश करता है, तो अगले 1 महीनों तक खरमास रहता है. इन 30 दिनों की अवधि को शुभ नहीं माना जाता है.
सूर्य प्रत्येक राशि में एक माह रहता है. इस हिसाब से 12 माह में वह 12 राशियों में प्रवेश करता है. सूर्य का भ्रमण पूरे साल चलता रहता है.



गुरुवार, 14 मार्च 2019

देवघर में मुम्बई पुलिस का छापा, तीन साइबर क्रिमनल गिरफ्तार

 मुंबई पुलिस का देवघर में छापा, सोनारायठाढ़ी से तीन साइबर क्रिमनल गिरफ्तार।


मुंबई के सैनी थानांतर्गत दर्ज साइबर क्राइम के कांड संख्या 385/18 के मामले में मुंबई पुलिस ने देवघर में छापेमारी की। यह छापेमारी देवघर के सोनारायठाढ़ी में की गई। छापेमारी के दौरान तीन लोगों की गिरफ्तार किया गया है।

 सोनारायठाढ़ी थानांतर्गत दोंदिया नावाडीह के रहने वाले 22 वर्षीय राजकुमार, 25 वर्षीय मिलन कुमार सुंदरम और 19 वर्षीय राजकुमार मंडल को गिरफ्तार किया गया है। मुंबई पुलिस ने यूपीआई के माध्यम से एक लाख रुपये की ठगी के मामले में यह गिरफ्तारी की है। पुलिस ने आरोपियों के पास से 15 मोबाइल फोन, 4 बैंक पासबुक और एक एटीएम कार्ड जब्त किया है।

 देवघर एसपी एनके सिंह ने उक्त जानकारी एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर दी। उन्होंने बताया कि गुप्त सूचना के आधार पर हुई यह छापेमारी मुंबई पुलिस और देवघर पुलिस की संयुक्त कार्यवाई थी।

7-4-2-1 के फार्मूले के साथ झारखण्ड में यूपीए महागठबंधन लड़ेगा चुनाव

झारखंड में यूपीए महागठबंधन सीट बंटवारे की पेंच सुलझाने की कवायद में जुटा, 

    

** दो-तीन दिन में होगा औपचारिक एलान

** 7-4-2-1 का फॉर्मूला हो सकता है फिक्स


आसन्न लोक सभा चुनाव को लेकर यूपीए महागठबंधन का झारखंड में सीट बंटवारे को लेकर पेंच सुलझाने की कवायद जारी है. सूत्रों के मुताबिक दो-तीन के अंदर में 7-4-2-1 का फार्मूला सामने आ सकता है. जिसमे 7 सीट कांग्रेस, 4 जेएमएम, 2 जेवीएम और एक सीट आरजेडी के पाले में जा सकता है.  दिल्ली में आज से शुरू हुई दो दिवसीय कांग्रेस स्क्रीनिंग कमेटी की बैठक में प्रत्याशियों के नाम के साथ- साथ लोकसभा सीटें भी तय हो सकती हैं.

हालांकि यह भी बात सामने आ रही है की कांग्रेस अपने महागठबंधन के साथी जेएमएम, जेवीएम और आरजेडी के लिए अपनी परम्परागत सीटें भी छोड़ सकती है. छोड़े गये सीटों पर घटक दलों को फैसला लेना होगा.

सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस सात सीटें पर उम्मीदवारों का ऐलान कर सकती है. प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार पहले ही चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा कर चुके हैं. उन्होंने जमशेदपुर सीट साथियों के लिए छोड़ दिया है. जमशेदपुर सीट पर जेएमएम चुनाव लड़ सकता है. हालांकि जेएमएम ने सिंहभूम सीट पर भी दावा ठोक दिया है. जबकि कांग्रेस इस सीट पर गीता कोड़ा को उम्मीदवार बनाना चाह रही है.

उधर गोड्डा सीट को लेकर जेवीएम और कांग्रेस में जिच बरकरार है, जिस पर अंतिम फैसला कांग्रेस को ही लेना है. इस बीच यह भी सुचना मिली है कि आगामी 18 मार्च को जेएमएम कार्यकारिणी की रांची में बैठक होनी, जिसमें प्रत्याशियों को लेकर निर्णय लिया जाएगा. अब यूपीए महागठबंधन का ऊंट किस करवट बैठता है ,यह तो वक़्त ही बतायेगा।