शनिवार, 5 दिसंबर 2015

एक सच "डॉ राजेंद्र प्रसाद से जलते थे पंडित नेहरू"

एक सच :-  
  
" डॉ राजेंद्र प्रसाद से जलते थे पंडित नेहरू"



डा.राजेन्द्र प्रसाद की शख्सियत से पंडित नेहरु हमेशा अपने को असुरक्षित महसूस करते रहे। उन्होंने राजेन्द्र बाबू को नीचा दिखाने का कोई अवसर भी हाथ से जाने नहीं दिया। हद तो तब हो गई जब 12 वर्षों तक रा्ष्ट्रपति रहने के बाद राजेन्द्र बाबू देश के राष्ट्रपति पद से मुक्त होने के बाद पटना जाकर रहने लगे तो नेहरु ने उनके लिए वहां पर एक सरकारी आवास तक की व्यवस्था नहीं की। उनकी सेहत का ध्यान नहीं रखा गया। दिल्ली से पटना पहुंचने पर राजेन्द्र बाबू  बिहार विद्यापीठ, सदाकत आश्रम के एक सीलनभरे कमरे में रहने लगे।  उनकी तबीयत पहले से खराब रहती थी, पटना जाकर ज्यादा खराब रहने लगी। वे दमा के रोगी थे। सीलनभरे कमरे में रहने के बाद उनका दमा ज्यादा बढ़ गया। वहां उनसे मिलने के लिए श्री जयप्रकाश नारायण पहुंचे। वे उनकी हालत देखकर हिल गए। उस कमरे को देखकर जिसमें देश के पहले राष्ट्रपति और संविधान सभा के पहले अध्यक्ष डा.राजेन्द्र प्रसाद रहते थे, उनकी आंखें नम हो गईं। उन्होंने उसके बाद उस सीलन भरे कमरे को अपने मित्रों और सहयोगियों से कहकर कामचलाउ रहने लायक करवाया। लेकिन, उसी कमरे में रहते हुए राजेन्द्र बाबू की 28 फरवरी,1963 को मौत हो गई। क्या आप मानेंगे कि उनकी अंत्येष्टि में पंडित नेहरु ने शिरकत करना तक भी उचित नहीं समझा। वे उस दिन जयपुर में एक अपनी ‘‘‘तुलादान’’ करवाने जैसे एक मामूली से कार्यक्रम में चले गए। यही नहीं, उन्होंने राजस्थान के तत्कालीन राज्यपाल डा.संपूर्णानंद को राजेन्द्र बाबू की अंत्येष्टि में शामिल होने से रोका। इस मार्मिक और सनसनीखेज तथ्य का खुलासा खुद डा.संपूर्णानंद ने किया है।  संपूर्णानंद जी ने जब नेहरू को कहा कि वे पटना जाना चाहते हैं, राजेन्द्र बाबू की अंत्येष्टि में भाग लेने के लिए तो उन्होंने (नेहरु) संपूर्णानंद से कहा कि ये कैसे मुमकिन है कि देश का प्रधानमंत्री किसी राज्य में आए और उसका राज्यपाल वहां से गायब हो। इसके बाद डा. संपूर्णानंद ने अपना पटना जाने का कार्यक्रम रद्द किया। हालांकि, उनके मन में हमेशा यह मलाल रहा कि वे राजेन्द्र बाबू के अंतिम दर्शन नहीं कर सके। वे राजेन्द्र बाबू का बहुत सम्मान करते थे। डा0 सम्पूर्णानंद ने राजेन्द बाबू के सहयोगी प्रमोद पारिजात षास्त्री को लिखे गए पत्र में अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए लिखा था कि ‘‘घोर आष्चर्य हुआ कि बिहार के जो प्रमुख लोग दिल्ली में थे उनमें से भी कोई पटना नहीं गया। (किसके डर से?)  सबलोगों को इतना कौन सा आवश्यक काम अचानक पड़ गया, यह समझ में नहीं आया। यह अच्छी बात नहीं हुई। यह बिलकुल ठीक है कि उनके जाने न जाने से उस महापुरुष का कुछ भी बनता बिगड़ता नहीं। परन्तु, ये लोग तो निष्चय ही अपने कर्तव्य से च्युत हुए। कफ निकालने वाली मशीन वापस लाने की बात तो अखबारों में भी आ गई हैं मुख्यमंत्री की बात सुनकर आष्चर्य हुआ। यही नहीं, नेहरु ने राजेन्द्र बाबू के उतराधिकारी डा. एस. राधाकृष्णन को भी पटना न जाने की सलाह दे दी। लेकिन, डा0 राधाकृष्णन ने नेहरू के परामर्श को नहीं माना और वे राजेन्द्र बाबू के अंतिम संस्कार में भाग लेने पटना पहुंचे। इसी से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि  नेहरू किस कद्र राजेन्द्र प्रसाद से दूरियां बनाकर रखते थे।
ये बात भी अब सबको मालूम है कि पटना में डा. राजेन्द्र बाबू को उत्तम क्या मामूली स्वास्थ्य सुविधाएं तक नहीं मिलीं। उनके साथ बेहद बेरुखी वाला व्यवहार होता रहा। मानो सबकुछ केन्द्र के निर्देश पर हो रहा हो। उन्हें कफ की खासी शिकायत रहती थी। उनकी कफ की शिकायत को दूर करने के लिए पटना मेडिकल कालेज में एक मशीन थी ही कफ निकालने वाली। उसे भी केन्द्र के निर्देष पर मुख्यमंत्री ने राजेन्द्र बाबू के कमरे से निकालकर वापस पटना मेडिकल काॅलेज भेज दिया गया। जिस दिन कफ निकालने की मषीन वापस मंगाई गई उसके दो दिन बाद ही राजेन्द बाबू खास्ते-खास्ते चल बसे। यानी राजेन्द्र बाबू को मारने का पूरा और पुख्ता इंतजाम किया गया था ।
दरअसल नेहरु अपने को राजेन्द्र प्रसाद के समक्ष बहुत बौना महसूस करते थे। उनमें इस कारण से बढ़ी  हीन भावना पैदा हो गई थी। इसलिए वे उनसे छतीस का आंकड़ा रखते थे। वे डा.राजेन्द्र प्रसाद को किसी न किसी तरह से आदेश देने की मुद्रा में रहते थे जिसे राजेन्द्र बाबू मुस्कुराकर टाल दिया करते थे। नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद से सोमनाथ मंदिर का 1951 में उदघाटन न करने का आग्रह किया था। उनका तर्क था कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के प्रमुख को मंदिर के उदघाटन से बचना चाहिए। हालांकि, नेहरू के आग्रह को न मानते हुए डा. राजेंद्र प्रसाद ने सोमनाथ मंदिर में शिव मूर्ति की स्थापना की थी। डा. राजेन्द्र प्रसाद मानते थे कि ‘‘धर्मनिरपेक्षता का अर्थ अपने संस्कारों से दूर होना या धर्मविरोधी होना नहीं हो सकता।’’ सोमनाथ मंदिर के उदघाटन के वक्त डा. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि श्भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है लेकिन नास्तिक राष्ट्र नहीं हैश्। डा. राजेंद्र प्रसाद मानते थे कि उन्हें सभी धर्मों के प्रति बराबर और सार्वजनिक सम्मान प्रदर्शित करना चाहिए।
नेहरु एक तरफ तो डा. राजेन्द्र प्रसाद को सोमनाथ मंदिर में जाने से मना करते रहे लेकिन, दूसरी तरफ वे स्वयं 1956 के इलाहाबाद में हुए कुंभ मेले में डुबकी लगाने चले  गए। बताते चलें कि नेहरु के वहां अचानक पहुँच जाने से कुंभ में अव्यवस्था फैली और भारी भगदड़ में करीब 800 लोग मारे गए।
हिन्दू कोड बिल पर भी नेहरु से अलग राय रखते थे डा. राजेन्द्र प्रसाद। जब  पंडित जवाहर लाल नेहरू हिन्दुओं के पारिवारिक जीवन को व्यवस्थित करने के लिए हिंदू कोड बिल लाने की कोशिश में थे, तब डा.राजेंद्र प्रसाद इसका खुलकर विरोध कर रहे थे। डा. राजेंद्र प्रसाद का कहना था कि लोगों के जीवन और संस्कृति को प्रभावित करने वाले कानून न बनाये जायें।
दरअसल जवाहर लाल नेहरू चाहते ही नहीं थे कि डा. राजेंद्र प्रसाद देश के राष्ट्रपति बनें। उन्हें राष्ट्रपति बनने से रोकने के लिए उन्होंने ‘‘झूठ’’ तक का सहारा लिया था। नेहरु ने 10 सितंबर, 1949 को डा. राजेंद्र प्रसाद को पत्र लिखकर कहा कि उन्होंने (नेहरू) और सरदार पटेल ने फैसला किया है कि सी.राजगोपालाचारी को भारत का पहला राष्ट्रपति बनाना सबसे बेहतर होंगा।नेहरू ने जिस तरह से यह पत्र लिखा था, उससे डा.राजेंद्र प्रसाद को घोर कष्ट हुआ और उन्होंने पत्र की एक प्रति सरदार पटेल को भिजवाई। पटेल उस वक्त बम्बई में थे। कहते हैं कि सरदार पटेल उस पत्र को पढ़ कर सन्न थे, क्योंकि, उनकी इस बारे में नेहरू से कोई चर्चा नहीं हुई थी कि राजाजी (राजगोपालाचारी) या डा. राजेंद्र प्रसाद में से किसे राष्ट्रपति बनाया जाना चाहिए। न ही उन्होंने नेहरू के साथ मिलकर यह तय किया था कि राजाजी राष्ट्रपति पद के लिए उनकी पसंद के उम्मीदवार होंगे। यह बात उन्होंने राजेन्द्र बाबू को बताई। इसके बाद डा. राजेंद्र प्रसाद ने 11 सितंबर,1949 को नेहरू को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ‘‘पार्टी में उनकी (डा0 राजेन्द प्रसाद की) जो स्थिति रही है, उसे देखते हुए वे बेहतर व्यवहार के पात्र हैं। नेहरू को जब यह पत्र मिला तो उन्हें लगा कि उनका झूठ पकड़ा गया। अपनी फजीहत कराने के बदले उन्होंने अपनी गलती स्वीकार करने का निर्णय लिया।
नेहरू यह भी नहीं चाहते थे कि हालात उनके नियंत्रण से बाहर हों और इसलिए ऐसा बताते हैं कि उन्होंने इस संबंध में रातभर जाग कर डा. राजेन्द्र प्रसाद को जवाब लिखा। डा. राजेन्द्र बाबू, प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के विरोध के बावजूद दो कार्यकाल के लिए राष्ट्रपति चुने गए थे। बेशक, नेहरू सी राजगोपालाचारी को देश का पहला राष्ट्रपति बनाना चाहते थे, लेकिन सरदार पटेल और कांग्रेस के तमाम वरिष्ठ नेताओं की राय डा. राजेंद्र प्रसाद के हक में थी। आखिर नेहरू को कांग्रेस  नेताओं सर्वानुमति की बात माननी ही पड़ी और राष्ट्रपति के तौर पर डा. राजेन्द्र प्रसाद को ही अपना समर्थन देना पड़ा।
जवाहर लाल नेहरू और डा. राजेंद्र प्रसाद में वैचारिक और व्यावहारिक मतभेद बराबर बने रहे थे। ये मतभेद शुरू से ही थे, लेकिन 1950 से 1962 तक राजेन्द्र बाबू के राष्ट्रपति रहने के दौरान ज्यादा मुखर और सार्वजनिक हो गए। नेहरु पश्चिमी सभ्यता के कायल थे जबकि राजेंद्र प्रसाद भारतीय सभ्यता देश के एकता का मूल तत्व मानते थे। राजेन्द्र बाबू को देश के गांवों में जाना पसंद था, वहीं नेहरु लन्दन और पेरिस में चले जाते थे। पेरिस के घुले कपड़े तक पहनते थे। सरदार पटेल भी भारतीय सभ्यता के पूर्णतया पक्षधर थे। इसी कारण सरदार पटेल और डा. राजेंद्र प्रसाद में खासी घनिष्ठता थी। सोमनाथ मंदिर मुद्दे पर डा. राजेंद्र प्रसाद और सरदार पटेल ने एक जुट होकर कहा की यह भारतीय अस्मिता का केंद्र है इसका निर्माण होना ही चाहिए।
अगर बात बिहार की करें तो वहां गांधीजी के बाद राजेन्द्र प्रसाद ही सबसे बड़े और लोकप्रिय नेता थे। गांधीजी के साथ ‘राजेन्द्र प्रसाद जिन्दाबाद’ के भी नारे लगाए जाते थे। लंबे समय तक देश के राष्ट्रपति  रहने के बाद भी राजेन्द्र बाबू ने कभी भी अपने किसी परिवार के सदस्य को न पोषित किया और न लाभान्वित किया। हालांकि नेहरु इसके ठीक विपरीत थे। उन्होंने अपनी पुत्री इंदिरा गांधी और बहन विजयालक्ष्मी पंडित को सत्ता की रेवडि़यां खुलकर बांटीं। सारे दूर-दराज के रिष्तेदारों को राजदूत, गवर्नर, जज बनाया।
एक बार जब डा. राजेंद्र प्रसाद ने बनारस यात्रा के दौरान खुले आम काशी विश्वनाथ मंदिर के पुजारियों के पैर छू लिए तो नेहरू नाराज हो गए और सार्वजनिक रूप से इसके लिए विरोध जताया, और कहा की भारत के राष्ट्रपति को ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए। हालांकि डा. राजेन्द्र प्रसाद ने नेहरु की आपत्ति पर प्रतिक्रिया देना भी उचित नहीं समझा। राजेन्द्र प्रसाद नेहरू की तिब्बत नीति और हिन्दी-चीनी भाई-भाई की नीति से असहमत थे। नेहरु की चीन नीति के कारण भारत 1962 की जंग में करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। राजेन्द्र बाबू और नेहरु में राज्यभाषा हिन्दी को लेकर भी मतभेद था। मुख्यमंत्रियों की सभा (1961) को राष्ट्रपति ने लिखित सुझाव भेजा कि अगर भारत की सभी भाषाएं देवनागरी लिपि अपना लें, जैसे यूरोप की सभी भाषाएं रोमन लिपि में लिखी जाती हैं, तो भारत की राष्ट्रीयता मजबूत होगी। सभी मुख्यमंत्रियों ने इसे एकमत से स्वीकार कर लिया, किन्तु अंग्रेजी परस्त नेहरू की केंद्र सरकार ने इसे नहीं माना क्योंकि, इससे अंग्रेजी देश की भाषा नहीं बनी रहती जो नेहरू चाहते थे।
वास्तव में डा. राजेंद्र प्रसाद एक दूरदर्शी नेता थे वो भारतीय संस्कृति सभ्यता के समर्थक थे, राष्ट्रीय अस्मिता को बचाकर रखने वालो में से थे।जबकि नेहरु  पश्चिमी सभ्यता के समर्थक और, भारतीयता के विरोधी थे। बहरहाल आप समझ गए होंगे कि नेहरु जी किस कद्र भयभीत रहते थे राजेन्द्र बाबू से।
अभी संविधान पर देषभर में चर्चायें हो रही हैं। डा0 राजेन्द्र प्रसाद ही संविधान सभा के अध्यक्ष थे और उन्होंने जिन 24 उप-समितियों का गठन किया था, उन्हीं में से एक ‘‘मसौदा कमेटी’’ के अध्यक्ष डा0 भीमराव अम्बेडकर थे। उनका काम 300 सदस्यीय संविधान सभा की चर्चाओं और उप-समितियों की अनुषंसाओं को संकलित कर एक मसौदा (ड्राफ्ट) तैयार करना था जिसे संविधान सभा के अध्यक्ष के नाते डा0 राजेन्द्र प्रसाद स्वीकृत करते थे। फिर वह ड्राफ्ट संविधान में शामिल होता था। संविधान निर्माण का कुछ श्रेय तो आखिरकार देशरत्न डा0 राजेन्द्र प्रसाद को भी मिलना ही चाहिए।

रविवार, 29 नवंबर 2015

क्षणिकाएँ : अपना बना ले मुझे

क्षणिकाएँ:

  " अपना बना ले मुझे "



छोटी सी बात पर
नाराज मत होना
भूल हो गयी हो तो
 माफ़ कर देना।
नाराज तब होना
मेरे दोस्त .....
जब रिश्ता तोड़ देंगे-
और यह तो तब ही होगा
जब हम दुनिया छोड़ देंगें।

गुस्से को थूक कर
फिर से अपना ले मुझे
छोटी सी जिंदगी है...
मेरे दोस्त .....
एक बार फिर से
अपने गले लगा ले मुझे।

क्षणिकाएँ : किस्मत

क्षणिकाएँ :

"किस्मत"

किस्मत पे एतबार किसको है
मिल जाये खुशी इनकार किसको हैं
कुछ तो मजबूरियां रही होंगी  मेरे दोस्त -
वरना जुदाई से प्यार किसको है।

बुधवार, 25 नवंबर 2015

क्षणिकाएँ :- ऊंचाई किस काम की

क्षणिकाएँ :-

ऊंचाई किस काम की

जंहा याद न आये तेरी
वो तन्हाई किस काम की
बिगड़े रिश्तों को बना न पाये जो
वो खुदाई किस काम की
बेशक ऊँची मंजिल की तलाश में
दूर तलक जाना हो हमें
लेकिन जंहा से अपने न दिखे
वो ऊंचाई किस काम की।


क्षणिकाएं :- हादसा

क्षणिकाएं :-

हादसा

हादसा बन के बाजार में आ जायेगा
जो घटित हुआ न हो-
वह भी अखबार में आ जायेगा।
चोर उचक्कों की करो कद्र,
न जाने कब कौन -
किस सरकार में आ जायेगा।

कविता :- हाय रे आमीर

कविता:-

हाय रे आमीर !

हाय रे आमीर !
 तूने यह क्या कह डाला
कहने को तो  कह डाला, अब-
छीन जायेगा तेरा -निवाला ।
किरण के पल्लू में छिप कर
तब  तुम रोना दिन वो रात
नही आएगा कोई उस वक्त
अपना तुझको देने साथ
अश्रुधार बहा बहा कर -भिंगोते
रहना फिर किरण का दुशाला
नही आएगा फिर भी
 कोई आँशु पोछने वाला।
हाय रे आमीर!
यह तूने क्या कह डाला।।

रविवार, 29 मार्च 2015

आलेख:- !! दहेज विनाशी - ईलू- ईलू !!



आलेख:-
                                              !!  दहेज विनाशी - ईलू- ईलू  !!
                                    
प्रचीन काल मे लडके व लडकियों की शादी मां -बाप की मर्जी के अनुकूल ही हुआ करती थी।  क्योंकि उस जमाने की लडकियां व लडके इतने तेज तर्रार नहीं थी जितने के आज कल के।
ज्यों- ज्यों युग परिवर्तित होता गया, त्यों - त्यों शादियों के रीति -रिवाजों में भी परिवर्तन आता गया। आज शादी के पूर्व लडके - लडकियों की परीक्षण की जाती है। उस परीक्षण मे यदि वह पास हुए तो समझो मामला फीट अन्यथा रफा - दफा।
एक लडकी की शादी लगभग तय हो चुकी थी। लडकी को लडका और लडके के परिजनो को लडकी पसंद आ चुकी थी। ऐन मौके पर लडके ने लडकी की परीक्षण का शर्त रख दिया , कहा बगैर जांचे परखें मे किसी को अपना जीवन संगिनी नहीं बना सकता। लडकी के परिजनों को पहले तो यह प्रस्ताव काफी अटपटा लगा, लेकिन लडके के परिवार वालों ने जब जोर दिया तो उन्हे यह शर्त मानने को विवश होना पडा। तय समय पर लडकी को परीक्षण हेतु एक होटल मे बुलाया गया। जहां लडके के कई मित्र वहां पूर्व से ही मौजूद थे। लडकी सकुचाती हुई अपनी एक खास सहेली के साथ उक्त होटल मे पहुंच गयी। लडकी के पहुंचते ही लडके के एक दोस्त ने होटल के बैयरे को ढोसा लाने का आॅडर दिया। इस बीच लडके के दोस्तों ने लडकी से काफी कुछ पुछ ताछ किया। लडकी डरी सहमी उनके सारे सवालों को जबाब देती गयी। इसी बीच बैयरे ने ढोसा लाकर उनके टेबल पर रखा और चला गया। सभी लडके ढोसे पर कूद पडे। लडकी चूंकि देहात की थी उसने कभी कांटा चम्मच का उपयोग किया नहीं था इस कारण उसे कांटा चम्मच का उपयोग करना ठीक तरीके से नहीं आ रहा था। जिसे देख लडके ने दोस्त आपस मे खुशुर - फुसुर करने लगे, लडके ने इस घटना को अपने दोस्तों के बीच अपनी बेइज्जती महसूस किया। नतीजतन उसने अपने परिजनों से दो टूक कह दिया उसे लडकी पसंद नहीं और उसने सम्बन्ध विच्छेद कर दिया।
ठीक ऐसी ही घटना तब घटी जब एक तेज तर्रार लडकी की मंगनी एक अच्छे - भले ,सुशील, मृदुभाषी, छरहरे बदन  के बादशाह कामगार लडके से हुई। मंगनी के पश्चात लडकी अपने होने वाले पति के साथ सैर करने लडके के दुपहिया पर सवार हो निकली। लडका गाडी मध्यम रफ्तार से चला रहा था, क्योंकि ट्रैफिक कुछ अधिक थी। लडकी को यह कतई पसंद नहीं आयी। उसने लडके से गाडी की रफ्तार तेज करने को कहा। लडका रफ्तार मे थोडी सी तेजी लाया। परन्तु अब भी लडकी को पसन्द नहीं आया। उसने उसे और तेज गाडी चलाने को कहा पर लडका और अधिक तेज नहीं किया। लडकी को उसकी रफ्तार नागवार गुजरी, क्योंकि उसे गाडी के रफ्तार से मजा नहीं आ रहा था, इसलिये उसने मुंह फुला ली। वापसी पर लडकी ने अपने परिवार वालों से यह शिकायत की कि -  ’’ जो सडक पर गाडी तेज नहीं चला सकता वो भला जिन्दगी की गाडी क्या खाक चला पायेगा ’’ । इसलिये मुझे यह रिश्ता मंजूर नहीं है। नतीजतन मां बाप के न चाहने पर भी वह सम्बन्ध बनने के पूर्व ही सम्बन्ध विच्छेद हो गया।
आखिर यह परीक्षण की क्रिया हमारे समाज मे आई कहां से ? क्या आपने कभी इसे जानने की कोशिश की है ? यह पश्चिमी सभ्यता का हमारे जीवन पर पडता प्रकोप और सिनेमा का कुप्रभाव है।
वैसे सिनेमा देखना कोई बुरी बात नहीं परन्तु उससे अच्छी शिक्षा न ग्रहण कर बुरी शिक्षा ग्रहण करना बुरी बात है। आज हमारे यहां कुछ ऐसी फिल्मंे बनती है जिस पर  ’’ 18 वर्ष से कम उम्र वालों को देखना सख्त मना है ’’ ,  ’’ सिर्फ व्यस्कों के लिये ’’ का लेबल चिपका होता रहता है। परन्तु आप खास कर उन सिनेमा घरों के बुकिंग काउन्टर पर ध्यान दें जिन सिनेमा घरों  ’’ ये ’’ लेबल वाले सिनेमा लगे हों,  तो आप पायेंगे कि बुकिंग काउन्टर पर भीड सिर्फ 18 वर्ष से कम उम्र वालों की ही है। इसमे दोष उन बच्चों अव्यस्कों को नहीं है, बल्कि दोष उस लेबल का है जो इन बच्चों को अपनी ओर आकर्षित करता है।
आज सिनेमा हमारे समाज का अभिन्न अंग बन गया है।  सिनेमा देखने के बाद लोग आम जीवन मे उसका अनुकरण  करते हैं। वैसा ही हाव भाव व्यक्तिगत जीवन मे ढालने पर तुल जाते हैं।
आज से कुछ वर्ष पूर्व एक फिल्म बनी थी  ’’ जंगली ’’ उसमे एक शब्द था  ’’याहू -हू-हू-हू ’’ । जबतक उस फिल्म का दौर चला , तब तक यह शब्द ’’ याहू ’’  हर गली -कूचे , शहर -देहात , गांव -कस्बे में सुबह- शाम,  दोपहर -रात सनने को मिलती थी। धीरे -धीरे लोग  ’’ ओ-ये ओ-ये ’’ के आदी बनते गये। फिर एक दौर चला कबुतर जा-जा-जा ’’ , ’’ अभी मुड नहीं है ’’
फिर बीते कुछ दिनो तक हर गली-कूचे, शहर -देहात मे एक ही शब्द विराजमान हो गया ईलू-ईलू                                      
ये ईलू -ईलू क्या है ? भले इसे गाने वाला अनपढ ही क्यों न हो परन्तु वह भी इसका अर्थ बखुबी जानता है। स्वयं तो समझता ही है दूसरों को भी समझाता है।
यह ईलू - ईलू का भूत खास कर युवा पीढी के सिर तो चढ कर बोलने लगा था। चाहे वह युवक हो या युवती। सभी इस शब्द के अर्थ को समझ कर इसे अपने जीवन के हित मे इस्तेमाल करने लगे। साथ ही इसका उपयोग आप जीवन मे भी करने लगे।  इस शब्द का इस्तेमाल उनके जीवन के लिये कितना उचित और कितना अनुचित है वो तो वह ही जाने। वैसे आज के इस युग मे आज की युवा पीढी इस शब्द की मदद से ही एक दूसरे को हो जायें  तो हमारे समाज के लिये यह शब्द ईलू - इ्र्रलू बडा ही गुणकारी  साबित होगा। क्योंकि इस शब्द के मदद से ही जब युवक युवती एक दूसरे को हो जायेंगे तो समाज मे व्याप्त दहेज रूपी कोढ का समूल सफाया हो जायेगा। जिसे समाप्त करने के लिये सरकार द्वारा अनेक ढोस व कारकर कदम उठाये गये हैं। लेकिन दहेज समाप्ति के सारे उपाय पर  ’’ ढाक के तीन पात ’’ वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। अर्थात यह कोढ समाज मे और गहराता जा रहा है। परन्तु यदि ये शब्द ईलू ईलू से इस कोढ का विनाश संभव है तो युवा पीढी युवक युवतियां खुल कर ईलू ईलू करें। उन्हें इस काम के लिये समाज के हर वर्ग के लोग प्रोत्साहित, व उत्साहित करेंगे। अन्य तबके के मां बाप के साथ साथ खास कर गरीब तबके के मां बाप बहुत ही दुहाईयां देंगे। बलाईयां लेंगे।
परन्तु आज के नौजवानों मे ईलू ईलू के साथ ही अपने अपने जीवन साथी का चुनाव करने की हिम्मत नहीं है तो उन नौजवानों को ईलू -ईलू करना निर्रथक है, बेकार है एक अभिशाप है।
                                                              :- समाप्त:-

सम्पर्क सूत्र :- राजेश कुमार , पत्रकार, राजेन्द्र नगर , बरवाडीह ,गिरिडीह, झारखंड।
मो - 9308097830 /9431366404
ईमेल –patrakarrajesh@gmail.com


गुरुवार, 26 मार्च 2015

आलेख:- लिया जो दहेज, नहीं मिलेगी सरकारी नौकरी



आलेख:


!!  लिया जो दहेज, नहीं मिलेगी सरकारी नौकरी  !!
                  

              
हमने अपने लम्बे जीवन की अवधि मे कई संकटों और मुसिबतों का सामना किया है। ये सारे संकट हमारे सामाजिक जीवन की विसंगतियों के कारण उत्पन्न हुए होते हैं। इन विसंगतियों का लगाव गलत रीति-रिवाज, प्रथा और नितियों से है। इसके मूल मे एक बडा कारण यह है कि हमारा समाज विविध कुरितियों , कुसंस्कारों और कुप्रथाओं से ग्रसित  रहा है।
हम आज भी समाज की कुप्रथाओं के शिकार हैं। इन कुप्रथाओं मे सबसे चर्चित कुप्रथा है - : दहेज प्रथा: ।
इस दहेज प्रथा का कोढ हमारे समाज में एक रोग के समान फैल गया है। जिससे समाज का कोई वर्ग अछुता नहीं रहा है। खास कर मध्यमवर्गीय समाज मे तो लोग दहेज को गौरव और प्रतिष्ठा की बात मानते हैं। जो जितना अधिक दहेज देता या लेता है , समाज मे उसकी इज्जत और प्रतिष्ठा उतनी ही बढती है। इसलिये शनैः शनैः इस रोग का प्रचार बहुत तीव्रता से बढ रहा है। आज सरकार द्वारा दहेज विरोधी कानून लागू किया गया है। इसमे सरकार यह कहती है जो व्यक्ति दहेज लेता या देता है वो दोनो ही दण्ड के भागीदार हैं। उसे उचित दण्ड दिया जाये। परन्तु इतना सब कुछ होने के बाबजूद भी लोग कानून की आंखों मे धुल झांेक कर इस कुप्रथा को जोर-शोर से पनपा रहे हैं। क्योंकि आज कानून का रक्षक न्यायाधीश, खुद कानून की नजर बचा कर दहेज दे और ले रहा है। अब जब स्वयं रक्षक ही भक्षक बन गया है और कानून की तमाम नियमों को ताख पर रख दिया है तो आम जनता कौन सा गुनाह किया है। जो वो दहेज न दे और न लें।
आज दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि के रूप में इसके समर्थक इसे प्राचीन काल से चली आ रही प्रथा बताते हैं। वो राजा दशरथ द्वारा राजा जनक से ली गयी दहेज की बातें करते है और इस दहेज प्रथा की सार्थकता को प्रमाणित करते है। इस विषय पर वे ये भी तर्क देते हैं कि बेटी की शादी में, बेटी का पिता, बेटी से स्नेह के कारण ही कुछ देते हैं। वे अपनी बेटी के भावी जीवन को उज्जवल बनाये रखने के लिये अपने दामाद को नगदी, कपडे, फर्नीचर समेत अनेकानेक उपयोगी सामग्रियां देते हैं, और, फिर देना भी चाहिए , क्योंकि वह पिता अपनी बेटी से स्नेह करता है। तो इसमें बुराई क्या है?
बुराई तो इस बात में है कि शादी के पूर्व दहेज के रूप में एक मोटी रकम वसूल कर लिया जाता है। लेकिन यदि कोई पिता जो दुर्भाग्य से लडकी का पिता है और उसके पास दहेज में देने को एक फुटी कौडी भी नहीं है। उस वक्त वह लडके के पिता के सामने हाथ जोड गिडगिडाता रहता है लेकिन दहेज के लोभ मे अंधा हो चुका लडके के पिता , जो अपने बेटे को एक ऐसा कच्चा माल समझाता है जो कभी खराब न होने वाला है और बाजार मे उसके हजारों-लाखों खरीददार हैं। बिना कुछ कुछ सोंचे समझे उस गरीब पिता के घर के बनने वाले रिश्ते को तोड देता है, और दूसरी जगह मोल भाव कर अपने बेटे को बेच देता है।
आज इस दहेज प्रथा के कारण कितनी लडकियां कुंवारी ही बैठी है। कितनों ने शादी के उम्र पार कर कोठे की शोभा बढा रही है। क्योंकि आज के इस युग मे लडकी की मांग मे सिन्दुर भरने के लिये लडके वाले एक टैक्स वसूल करता है। जिस टैक्स की अदायगी करने मे लडकी का गरीब पिता अपने को असमर्थ समझता है, और वह अपनी बेटी का रिश्ता नहीं कर पता है।
परिणामतः दुखित होकर कितनी लडकियां आत्महत्या कर लेती है। कितनों के पिता स्वयं आत्महत्या कर लेते हैं या फिर बहसी दरिन्दा बन स्वयं ही अपने ही हाथों अपनी फूल सी लाडली बिटिया का गला घोंट देता है।
ये कितनी दुःखद घटना होती है कि एक पिता जो अपार लाड प्यार देकर अपनी बेटी को जवान करता है, परन्तु समाज के लोगों के कारण, दहेज वसूलने वाले पिशाचों के कारण अपनी बेटी का हाथ पिला न कर, अपना ही हाथ रक्त रंजीत कर लेता है। अपनी लाडली बिटिया की हत्या कर देता है। आज तो कई लोग अपने को बेटी का पिता तक नहंी कहलाना चाहते हैं। परिणामतः बेटी के जन्म होते ही उसे मारने की बातें सोंचने लगता है। कितने पिता तो आज गर्भ मे पल रही बेटी को मां के कोख मे ही दफन कर देते हैं। कितनों को उनके जन्म के बाद मार दिया जाता है। आखिर क्यों ? सिर्फ और सिर्फ इस पिशाच रूपी दहेज प्रथा के कारण।
इसलिये आज के नौजवानों को आगे आना होगा और उन्हें यह सौगन्ध लेनी होगी कि हम युवापीढि के लोग इस कुप्रथा को जड से मिटा देंगे। ताकि आये दिन कोई बेटी का पिता स्वयं ही बेटी का हत्यारा न घोषित किया जा सके। इसलिये हम जब भी शादी करेंगे - बगैर तिलक दहेज के आदर्श विवाह करेंगे। और, इस नारे को बुलंद करेंगे:-
1- लडका, लडकी जब एक समान!
  फिर दहेज की कैसी मांग!!
2- तिलक नहीं , दहेज नहीं,
  शादी कोई व्यापार नहीं!
  खरीदा हुआ जीवन साथी,
  अब हमें स्वीकार नहीं!!
साथ ही साथ प्रशासन को भी चाहिये कि वो दहेज विरोधी कानून को पूरी मुस्तैदी के साथ लागू करे, और जो इस पर अमल न करता पाया जाये उसे उचित से उचित और कठोर कठोर दंड दिया जाये। तथा जो व्यक्ति दहेज लेकर विवाह करता है- उसे सरकारी नौकरी कभी भी किसी कीमत पर न मिले। और, समाज के लोग वैसे दहेज के पक्षधरों का वैसे लोगों को सामाजिक बहिष्कार कर दें। तभी यह कुप्रथा यह सामाजिक कोढ दहेज प्रथा हमारे से समाज से मिट सकेगा- अन्यथा नहीं।
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